Thursday, December 20, 2012

प्रकृति का लोकाचार और हम


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
विश्व भर के साहित्य में सूर्य के उदय और अस्त होने की बातें कही गई हैं, जबकि यह सच नहीं है। चंद्रमा-तारे-नीहारिकाएं और पृथ्वी भी अपने से ताकतवर का चक्कर लगाते हैं। शक्ति के चक्कर का सिद्धांत कमजोर का प्रकृत सत्य है। सौरमंडल के ग्रह-उपग्रहों का उदय-अस्त नहीं होता। जब सूर्य, पूर्व से पश्चिम जाकर हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है, तब हम उसका अस्त होना और रात के बाद जब पुन: सुबह दिखता है, उदित होना मानते हैं। सुबह, दोपहर, संध्या और रात में सूर्य की ही गति है। लोक मानस में सूर्य भगवान हैं, शादी-सुदा हैं, बाल-बच्चेदार हैं। यूं, सौर मंडल उनका पारिवारिक समाज है, जो अधिकतर उनके ही प्रकाश से प्रकाशित है। पुराणों में राजाओं का जो वंश सर्वशक्तिशाली हुआ उसे सूर्यवंशी ही कहा गया सूर्य की शक्ति का यह सहज भाव था। भारतीय लोक मानस ने धरती, आकाश और पाताल (जल) के प्राणियों से अपनी संवेदना, जीवन और संघर्ष के संबंध स्थापित किए हैं। नदी, पहाड़, वृक्षों से भी रिश्ते बनाए, उनकी पीड़ा, समझी, उन्होंने मुक्तहस्त दान दिए। दिन भर का थका-भूखा-प्यासा सूर्य शाम को पत्‍नी संझ (संध्या) के पास पहुंचा। संझ का वस्त्र काला है, धुंधलका हो रहा है, वस्त्र पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। अशुभ काल है, गोधूलि छाई है। संझ बाहर-भीतर झन्न-फन्न करती हुई बड़बड़ा रही है। गांव में लोकोक्ति है "सुरुज कस मेहरि" दिदी (मां) गांव की एक काकी को "सुरुज केर मेहरि" कहती थी। जो दिन भर खेत में काम करके लौटे काका को जल्दी न पानी देती न खाना, उलटे उलाहना देती रहती। काका चुपचाप पड़े रहते, जब इच्छा होती खाना-पानी देती। मां कहतीं बेचारे सुरुज भगवान संझ के इस व्यवहार से दुखी होकर फिर चल देत। काकी इस तरह काका की मेहरि होते हुए भी प्रतीक में "सुरुज केर मेहरि" थी। इस कहानी में संझ पर व्यंग्य भले हो, सूर्य के निरंतर गतिमान रहने की प्रमाणिकता है।

पुराणों में सूर्य की पुत्री यमुना (यमी) और पत्‍नी संज्ञा का उल्लेख है। लोक और पुराण का सामंजस्य कुछ इस तरह हुआ कि सूर्य की ऊष्मा से घबराकर संज्ञा बिना बताए पिता के घर से चली गई। सूर्य ने मनौती की, संज्ञा नहीं पसीजी। अंत में हारकर सूर्य ने अपने प्रकाश के कुछ हिस्से अन्य ग्रहों को बांट दिए। इसीलिए माना गया कि सभी ग्रह सूर्य के अंश हैं। संज्ञा लौट आईं। सूर्य संज्ञा के सम्मिलन से जल, जीवन, मृत्यु का जन्म हुआ। लोक की संझ आज भी किसी शुभ कार्य की स्वीकृति नहीं देती। लोक की संझ शास्त्र की संज्ञा हो गई। संज्ञा का अर्थ संज्ञान होना है परन्तु संझ के अनेक अर्थ हैं। जीवन के अनेक अर्थो में संझ के निहितार्थ अलग हैं। किसान के लिए संझ हो गई, काम बंद करने के अर्थ में है। संझ की लालिमा देख पक्षी अपने घोसलों की ओर लौटते हैं। पत्‍नी के प्रतीक्षा का समय है। जीवन-संध्या बुढ़ापे का संकेत है और किसी जवान के मरने पर कहा जाता है "भरी दोपहरी में सांझ हो गई।" संझ चहलपहल समेटने-लौटने की बेला है। कोलाहल, कलरव और आपाधापी के इस वक्त को मानवीय रूपक देना मनुष्य का प्रकृति से तादाम्य बनाना है। चंद्रमा को चंदा मामा कहकर बुलाता है। मामा के हाथ से भानजे को दूध पिलाने का उपक्रम लोकगीतों में भरा पड़ा है। सूर के बालकृष्ण का हठ तो अनोखा है-"चंद्र खिलौना लैहों।" यशोदा थाली में पानी भरकर चंद्रमा को बुला लेती हैं, कृष्ण खुश होकर पानी में चंद्र की परछाईं को पकड़ता है। बिम्व मिट जाता है। लुकाछिपी का यह खेल आकाश का चंद्रमा भी देखकर कृष्ण-लीला पर मुग्ध है। संसार के प्रत्येक देश में इस प्रकार की अनेक किवदंतियां प्रसिद्ध हैं। इंद्र, देवराज हैं। सभी देवगण उसकी आज्ञा के मुखापेक्षी हैं। वरुण, अग्नि, वायु के बावजूद वह जलदेवता हैं। अपनी पूजा की अवहेलना देख वह गोकुल पर फट पड़ता है पूरे आवेग से। धरती के कृष्ण से हार जाता है। पर्वतों की ऊंचाई को छोटा करने वाली अनेक मिथ-कथाएं हैं। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के अनेक पुत्रों में जल बनकर बहने वाले तीन पुत्र भी थे-सिंधु, ब्रह्ममपुत्र और सोन। सोन और रेवा मेकल के अमरकंटक के एक कुंड के दो ध्रुवों में पैदा हुए। दोनों में मित्रता हुई, सोन, रेवा (नर्मदा) के रूप लावण्य पर मुग्ध हो गया। रेवा भी सोन से प्रेम करती थी। युवती रेवा ने एक दिन अपनी सहेली जुहिला से सोन के पास परिणय का प्रस्ताव भेला। जुहिला सुंदर थी, युवती थी। पता नहीं उसने रेवा का प्रस्ताव बताया या नहीं। कई दिनों तक जब जुहिला नहीं लौटी, रेवा ने जाकर देखा, जुहिला सोन के आगोश में है। सोन ने उसे धोखा दिया। लोक ने दोनों के प्रेम को देखा था। रेवा मुड़ी और देश की नदियों के विपरीत पहाड़ों को चीरती पश्चिम की ओर चल पड़ी। एक बार भी मुड़कर उद्गम की ओर नहीं देखा। सोन (पुरुष) का अस्तित्व गंगा से मिलकर समाप्त हो गया। उसमें स्नान करना अभिशप्त हो गया। कुंवारी रेवा (नर्मदा) पहाड़ों को फोड़ती, मैदानों में उछलती कूदती लंबी यात्रा करती खंभात की खाड़ी (अरब सागर) में विलीन हो गई। धारा के विरुद्ध बहने वाली भारतीय मनीषा की एक मात्र पवित्र लोक और पुराण पूज्या नदी। आचार्य शंकर ने जिनकी अभ्यर्थना में "नर्मदाष्टक" की रचना की। रेवा सागर में विलीन हो गई। सोन गंगा की लहरों में बिला गया। ब्रह्म के रेतस का प्रवाह हिमालय के पूवरेत्तर से धरती पर बहा। कहते हैं कि हिमालय पर्वतराज है जिसने गंगा को आश्रय दिया, तो विंध्यांचल दादा है जिसकी गोद में रेवा खेलती है। पर्वतों में देवताओं और ऋषियों का निवास है। देवाधिदेव आशुतोष शिव, पर्वतों के सर्वोच्च शिखर कैलाश में विराजने की कथा पुराण कहते हैं।

पंचवटी में सीता अपहरण के बाद राम की व्याकुलता और रो रो कर अपने कंकड़-पत्थर, वृक्षों, वन-मृगों, पक्षियों, भौरों से यह पूछना कि "क्या तुमने सीता को देखा है", देखकर चंद्रमा को उनके विष्णु अवतार होने पर संदेह हुआ। राम का विलाप देखकर वह हंसता रहा। विष्णु को हजारों वर्षो तक चंद्रमा का हंसना याद रहा। अपने अवतार के नकार का दंश उन्हें सालता रहा। कृष्ण के रूप में धरती पर आने पर कृष्ण ने सभी से प्यार किया। उन्मुक्त प्यार। वृंदावन में सोलह हजार सखियों के साथ महारास किया। सारे देवताओं के रथ रुक गए, इस महारास को देखने के लिए। रास का समय शरद पूर्णिमा की रात का था। चंद्रमा ने ठहरकर देखा कि रासलीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सबको नचाने वाला अचल, अटूट, अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण योगेश्वर हो गए। ऐसे मिथक और प्रतीक शास्त्र और लोक में भरे पड़े हैं। आधुनिक जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग प्रतीक बनकर जीवंत हैं-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने शिष्य को जाड़े की एक रात गंगा नहाने के लिए कहकर चले। जैन दर्शन के आचार्य प्रज्ञाचक्षु सुखलाल के यहां पहुंचकर इस भाव से मिले, जैसे कोई शिष्य अपने गुरु से मिल रहा हो। युवा छात्र (विश्वनाथ त्रिपाठी को सुखलाल) जी ने सलाह दी-"विद्वान बनना चाहते हो तो संस्कृत पढ़ लो। पढ़ना चाहते हो तो रात में सोने के कम से कम तीन घंटे पहले भोजन कर लिया करो।" भेंट से वापस लौटते हुए आचार्य द्विवेदी ने कहा-"हो गया न गंगा स्नान"।




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