Friday, December 14, 2012

आधे-अधूरे आर्थिक सुधारों की राह


एन के सिंह, राज्यसभा सदस्य और पूर्व केंद्रीय सचिव
संसद में मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश के मसले पर बहस उस प्रावधान के तहत हुई, जिसमें अंत में वोटिंग होनी थी। सरकार ने इस वोटिंग में अपने पक्ष के लिए पर्याप्त वोट जुटा लिए, लेकिन सभी राजनीतिक दलों का इसे लेकर जो रवैया था, उस हिसाब से 1991 के बाद यह शायद अकेला ऐसा आर्थिक सुधार है, जिसके पक्ष में सबसे कम राजनीतिक समर्थन था। राज्य सभा में जिन 22 दलों ने बहस में भाग लिया, उनमें से सिर्फ पांच इसके पक्ष में थे। यहां तक कि आर्थिक सुधारों की सबसे प्रबल पक्षधर पार्टियों ने भी इस बात के ठोस सबूत रखे कि खुदरा क्षेत्र को खोलने के बुरे नतीजे हो सकते हैं। साल 2002 में बतौर योजना आयोग सदस्य मेरी अध्यक्षता में एफडीआई पर बने स्टियरिंग ग्रुप की रिपोर्ट का भी जिक्र इस बहस में हुआ। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि खुदरा कारोबार के अलावा, अन्य क्षेत्रों को एफडीआई के लिए खोल देना चाहिए, क्योंकि हमारा खुदरा क्षेत्र बहुत फैला हुआ, श्रम बहुलता वाला और असंगठित है।

भारतीय अर्थव्यवस्था को इस समय सोच-समझकर उठाए गए मजबूत सुधारों की जरूरत है। पिछले तीन साल में अर्थव्यवस्था काफी धीमी गति से बढ़ी है। इस दौरान पिछले एक दशक की सबसे कम विकास दर रही है। इसके साथ वित्तीय घाटा इस साल के अनुमान के 72 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। लेकिन इस बात में शक है कि केंद्र सरकार ने खुदरा कारोबार में एफडीआई की इजाजत का जो फैसला किया है, वह क्या इसकी सबसे बड़ी कोशिश है या फिर सरकार ने इसका सबसे आसान रास्ता अपनाया है। राजनीतिक दलों में इसे लेकर जितने तीखे मतभेद हैं, उन्हें देखते हुए यह चिंता बनी रहेगी कि क्या खुदरा कारोबार वाली कंपनियां ऐसे में निवेश का जोखिम उठाना पसंद करेंगी?
आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही भारत के नीति-नियामकों ने विदेशी निवेशकों को दो आश्वासन दिए हैं- पहला है, कानून का शासन और दूसरा, नीतियों की निरंतरता। कानून के शासन के मामले में सरकार ने बदकिस्मती से अनिश्चितता का माहौल पैदा कर दिया है। नीतियों की निरंतरता के मामले में एक बात निवेशकों से हमेशा ही कही जाती रही है कि सरकार बदल सकती है, लेकिन नीतियां बरकरार रहेंगी। क्योंकि नीतियों से जो बदलाव हुआ है, उसने हमारे सामाजिक सामंजस्य को नहीं बिगाड़ा है। वित्त मंत्री के तौर पर मौजूदा प्रधानमंत्री ने 1991 में जो आर्थिक सुधार शुरू किए थे, उन्हें उस समय मुख्य विपक्षी दल का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल था। इसी तरह एनडीए के शासनकाल में जो दूरगामी सुधार हुए, उन्हें लेकर भी एक राजनीतिक आम सहमति थी। लेकिन इस समय खुदरा व्यापार को लेकर जो बदलाव हुआ है, उसमें यह आशंका शामिल है कि यह नीति बदल भी सकती है। फिर इस बात पर भी संदेह है कि क्या यह आर्थिक सुधार पेंशन, बैंकिंग और बीमा सुधारों के मुकाबले ज्यादा जरूरी था। इसी तरह से कई दूसरे महत्वपूर्ण कानूनों में भी बदलाव किया जाना है। खुदरा क्षेत्र को लेकर पांच ऐसे मसले हैं, जिन्हें मैं यहां उठाना चाहता हूं।
पहला है रोजगार का मसला। मल्टी ब्रांड रिटेल में रोजगार के आंकड़े चौकाने वाले हैं। 420 अरब डॉलर का कारोबार करने वाली वालमार्ट में सिर्फ 21 लाख लोगों को रोजगार मिला है, जबकि 400 अरब डॉलर का कारोबार करने वाला भारतीय खुदरा बाजार चार करोड़ लोगों को रोजगार देता है। इसलिए यह जितने रोजगार पैदा करेगा, उससे कहीं ज्यादा रोजगार इसकी वजह से खत्म हो जाएंगे। खुदरा कारोबार का अंतरराष्ट्रीय अनुभव यह बताता है कि बड़ी रिटेल कंपनियां कम लागत वाली अर्थव्यवस्थाओं का सामान बेचती हैं। यानी इसका बुरा असर उस औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र पर पड़ सकता है, जो पहले से ही कई चुनौतियों से गुजर रहा है। ऐसे उत्पादों को जुटाने का काम सुपर रिटेलर करते हैं और कई रिपोर्ट बताती हैं कि इनके उत्पादन में श्रम कानूनों, सुरक्षा और पर्यावरण नियमों का ध्यान नहीं रखा जाता।
दूसरा मसला है किसानों के फायदे का। अंतरराष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि वास्तविकता सरकार के दावे से जुदा है। ब्रिटेन में टेस्को दूसरे खुदरा कारोबारियों के मुकाबले चार फीसदी कम दाम देता है। इसी तरह अमेरिका के डेयरी किसानों की कमाई 52 फीसदी से घटकर 38 फीसदी रह गई है, ब्रिटेन में यह 56 फीसदी से घटकर 36 फीसदी हो गई है, जबकि भारत में डेयरी किसान अपनी लागत का 70 फीसदी हासिल कर लेते हैं।
तीसरा मसला है इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी का, जो निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है। लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराना या उसके लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना, यह सरकार का काम है। वैसे भंडारण और कोल्ड स्टोरेज में एफडीआई की इजाजत काफी समय पहले ही दी जा चुकी है, लेकिन इसमें निवेश हुआ नहीं। अगर विदेशी खुदरा कारोबारी इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करेगा भी, तो वह बस उसी के अपने इस्तेमाल के लिए होगा। इसलिए यह उम्मीद करना गलत होगा कि इससे देश की इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरतें पूरी हो जाएंगी।
चौथा मसला है किसानों और खुदरा कारोबारियों के बीच सीधे संपर्क का। इस मामले में सुपर मार्केट की कई तरह की गड़बड़ियों की खबरें आती रहती हैं। ये कंपनियां देर से भुगतान करती हैं, रियायत मांगती हैं, गुणवत्ता के स्तर को अचानक बदल देती हैं, आखिरी समय में खरीदारी के दाम घटा देती हैं, इसके अलावा, ज्यादा ब्याज दरों पर किसानों को कर्ज देती हैं। ऐसे में, अगर पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं किए जाएं, तो यह चीज किसानों के खिलाफ जा सकती है।
आखिर में आज की तारीख में खुदरा कारोबार में एफडीआई एक हकीकत बन चुकी है, इसलिए ऐसे तरीके अपनाए जाने जरूरी हैं, ताकि इसके दुष्प्रभावों से बचा जा सके। इस मसले पर मेरे तीन सुझाव हैं-
पहला, संगठित खुदरा कारोबारियों और किसानों की सौदेबाजी क्षमताओं में बहुत बड़ा फर्क है। किसानों के हितों को सुरक्षित करने के लिए उनके साथ सौदे का एक मॉडल कांट्रैक्ट बनना चाहिए।
दूसरा, सिंगल ब्रांड रिटेल के शर्त और नियम बना दिए गए हैं और इस पर कोई बड़ा हंगामा भी नहीं हुआ। अब सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रेस नोट नंबर पांच में दिए गए ये नियम और शर्ते पूरी तरह लागू हों।
तीसरे, इन्हें लागू करने का पूरा मामला उनकी अपनी घोषणा से ही तय हो जाएगा, ऐसी कोई संस्था नहीं बनाई गई, जिसके पास इनकी निगरानी का अधिकार हो। स्थायी समिति की सिफारिशों के अनुरूप सरकार को एक नेशनल रिटेल रेगुलेटर बनाना चाहिए, जो यह देख सके कि नियमों और शर्तो के अलावा, किसानों से कांट्रैक्ट का पूरी तरह से पालन हो रहा है या नहीं।
विकास के लिए आर्थिक सुधारों के सवाल का कोई सटीक जवाब नहीं होता। उनके लिए आप जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा मेहनत करनी होती है। इसके लिए सही नीति का चुनाव एक बड़ी चुनौती होता है, क्योंकि इसमें कई तरह की जांच-परख शामिल होती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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