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भारतीय लोकमानस, देवत्व से अधिक मनुष्यत्व को महत्व देता है। लोक कथाओं, लोक गीतों में राम, कृष्ण, शिव मनुष्य की तरह ही वर्णित हैं परंतु यत्र-तत्र उनके कृत्य मानवेत्तर हैं। देश के अधिसंख्य लोक काव्य-पुराण को ही इतिहास मानकर चलते हैं। उनके चरित्र ही मनुष्य का पथ प्रशस्त करते हैं। संसार भले ही मनुष्य के विकास का इतिहास पाषाण युग से मानता हो, भारत में आज भी लोग सतयुग-त्रेता-द्वापर में जीते हैं और उसका प्रमाण काव्यों-पुराणों में ढूंढ़ते हैं और उसे ही अपना अतीत मानते हैं। आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण के राम देवता नहीं मनुष्य हैं। रावण की मृत्यु और लंका की अशोक वाटिका कारागार से मुक्ति के बाद राम कहते हैं-...रावण सीता को हर ले गया, यह दोष दैव सम्पादित था, मैंने मनुष्य होकर उसे मिटा दिया’ दैव सम्पादितों दोषों मानुषेण मया जित... इस उक्ति का ध्वन्यार्थ यह भी है कि नियति पर भी मैंने विजय पाई, दैव ने तो रावण का साथ दिया था। देवत्व पर मनुष्य की प्रतिष्ठापना का यह प्रथम काव्यमय चरण था। देवासुर संग्रामों में मनुष्य की निर्णायक भूमिका हमेशा रही है। लोक कथाओं और गीतों के राम भले ही भगवान बने, परंतु लोक ने उनकी गलतियों को हरदम रेखांकित किया। पुराणों और काव्यों के राम भले ही मर्यादा पुरुषोत्तम और निष्कलंक हों, परंतु लोक कथाओं और गीतों में वह सीता के साथ न्याय नहीं करते दिखते। राम कथा का उत्तरार्ध कदाचित इसी कारण तुलसी नहीं लिखते। तुलसी, सीता को जग जननी मानते हैं, वे कैसे और क्यों वनवास दें, जबकि वे नाना पुराण निगमागमों की कथाओं के अधिकारिक विद्वान थे। तुलसी ने भी लोक और वेद मत दोनों को समान भाव से स्वीकारा था- ...लोक वेदमत मंजुल कूला।...कालांतर में लोक अपढ़ों के नाम दर्ज हो गया, परंतु लोकमन की आवाज कभी दबी नहीं। वाल्मीकि की सीता, राम के साथ वन जाने के लिए तैयार है परंतु वन के कष्टों के कारण राम उन्हें न चलने की सलाह देते हैं। सीता कहती हैं- ...यदि तुम मुझ दु:खिनी को अपने साथ वन न ले चलोगे तो मैं विष खाकर, या अग्नि में जलकर अथवा डूबकर प्राण दे दूंगी।...इस उत्कृष्ट प्रेम के बावजूद, सीता की अग्निपरीक्षा, अपवाद के कारण सीता का निष्कासन, मानवीय संदेह और शुचिता पर प्रश्न चिह्न नहीं खड़ा करता क्या? सीता के कारण लोक जन सम्पूर्ण ईमानदारी से खड़ा है, वह सीता के दुख से साझ करता है। जिस सीता के आस-पास परिचारिकाएं, दासियां रहती थीं, स्वयं राम रहते थे, वही सीता वन के एकांत में रोती विलखती हैं- ..को मोरे आगे पाछे बइठइ को लट छोरइ/ को मोर जागइ रैनिया, त विपति निबारइ।...दिन रात साथ में रहने वाले, बाल संवारने वाली, साथ जागने वाली विपति की इस घड़ी में कोई नहीं है। सीता का विलाप वन में रहने वाली स्त्रियों से नहीं सुना गया, वे सभी दौड़-दौड़कर आ के सीता को सांत्वना देती हैं- ..हम तोहरे आगे पाछे बइठब, हम लट छोरब/ सीता, हमही जगब सारी रैन, विपति तोर कटबइ....सीता की हर समस्या का समाधान उन वनवासी नारियों के पास है। राम के कहने से लक्ष्मण ने जिस तरह सीता को छोड़ा था, लोक ने देखा था- ...जेठ के दुपहरिया त अगिनी, भभकि बरइ/ तेंह म सीता के राम निकारिन, बड़ी रे विपती परी।..सुबह-सुबह पौ फटते ही सीता को दो पुत्र लव और कुश पैदा होते हैं। हर मां की इच्छा अपने पुत्र का मुख देखने को लालायित रहती है। सीता के पास प्रकाश के नाम पर कुछ नहीं है, कैसे पुत्रों का मुख देखे। लकड़ी जलाकर अग्नि के प्रकाश में पुत्रों का मुख देखती है। लोककवि कहता है- ...भोर भए पौ फाटत, लवकुश जनमें हई हो/सीता लकड़ी से किहिन अंजोर, संतति-मुख देखइ हो।...पुत्र मुख देखकर सीता निहाल हो गई। वे सोचती हैं कि कैसी है यह नियति कि आज मेरे इन पुत्रों के ओढ़ने बिछाने के लिए कुछ नहीं है। नारी के पराधीन मस्तिष्क की भी कहानी सीता का चिंतन है-...पुतबा, तूं त भएहुं बिपति मा, बहुतइ सांसति म/ पुतबा, कुसइ ओढ़न, कुस दासन, बनै फल भोजन/ जो पूत होते अजुधिया म, उहइ पुर-पाटन/राजा दशरथ पटना लुटउतें, कौशिल्या रानी अभरन।..लोक परम्परा में रोचना भेजने और खुशी मनाने का उत्सव पुत्र-जन्म से जुड़ा है। सीता भी वनवासी नाई से राजा दशरथ, रानी कौशिल्या और देवर लक्ष्मण के पास रोचना भेजती हैं, परंतु यह भी कहती हैं कि उन्हें(राम) नहीं बताना। कितनी बड़ी उपेक्षा और पीड़ा का सम्मिश्रण है यह अहसास -...हंकरा नगर केर नउआ हंकरि बेगि आबहु हो/ सीता के भए हैं दुइ लाल, रोचन पहुंचाबा हो/पहिल रोचन राजा दशरथ, दुसर कौशिल्या रानी हो/ तिसर रोचन लछिमन देबरा, पै उनहि न जनायेहुं हो।...अयोध्या बीच एक तालाब में राम दातून कर रहे हैं। उसी समय लक्ष्मण उस तरफ से निकलते हैं। उनके माथे पर रोचन लगा देखकर राम का हृदय आकुल प्रश्न मुखर हो उठता है- ...भइया! भहर भहर तोहर माथ, रोचन कह पाएंहु। भइया केकरे भये हैं लाल, त जिउ जुड़वाये हो।लक्ष्मण को भी आजीवन इस बात का दुख सालता रहा कि सीता निष्कासन जैसा दुष्कृत्य उनको करना पड़ा। वे भी राम से सीधे नहीं कहते कि आपको पुत्र-र8 की प्राप्ति हुई है। घुमा फिरा कर कहते है, राम इतने हृदयहीन तो नहीं हैं, सब समझते हुए भी लक्ष्मण से सुनते हैं- ..राजा दशरथ कइ पतेहिया, त भउजी सितल देई, ओनके भए हैं दुइ लाल, रोचन हम पाएन हो।...लोकगीतों में ऐसे भी प्रसंग हैं कि अश्वमेघ यज्ञ के समय लक्ष्मण सीता को वापस अयोध्या चलने के लिए कहने जाते हैं। विचित्र कथा है कि राम, सीता को लेने न अशोक वाटिका जाते हैं न वन से अयोध्या लाने। दोनों स्थान पर लक्ष्मण को ही भेजते हैं, सीता पहली बार तो अग्नि पर चलकर चली आईं, इस बार इंकार कर देती हैं- ...जाहु लखन घर अपने, त हम नहि जाबइ/जब तक जिअब दुइलाल त ओनहहीं क बनिहैं हो।...मैं तो जीते जी न जाऊंगी, बड़े होकर लव और कुश उन्हीं के ही पुत्र कहलाएंगे, अभी तो वे सीतापुत्र ही हैं। परंतु वाल्मीकि सीता से अयोध्या चलने को कहते हैं तो सीता का क्षोभ, गुस्सा-क्रोध एकाएक भरे बांध सा फूट पड़ता है। गुरु तो कालदर्शी हैं, सब जानते हैं, फिर भी चलने को कह रहे हैं, सीता कहती हैं- ...सबके हाल गुरु जानेउ, अजान बनि पूंछेउ/गुरु, असकइ राम मोंहि डाहिन, कैसे चित्त मिलिहैं/अगिया म राम मोहि डारिन, लाइ- भूंजि काढ़िन/गुरु,गरुए गरभ ते निकारिन, त कइसे चित्त मिलिहैं/तोहार कहा गुरु करबइ, परग दस चलबइ, राम निरमोहिया क मुहमा, जिअत नहिं देखबइ।...सीता की पीड़ा, दर्द और दुख के साथ सारा लोकमानस वाल्मीकि रामायण की रचना के पहिले भी था, आज भी है। रो-रो कर गाते हुए इन गीतों से ही लोक सम्पन्न है। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क - 09407041430. |
Friday, December 28, 2012
निरमोहिया राम की सीता-कथा
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