Friday, December 7, 2012

कब होई हमरे रिमही केर बिहान

चिन्तामणि मिश्र
 रीवा और शहडोल राजस्व संभाग में रिमही बोली का इस्तेमाल हिन्दी से अधिक है। शहरों की तुलना में इस क्षेत्र में गांवों से लेकर कस्बों,बाजारों में यह धड़ल्ले से बोली जाती है। शहरों में भी बंगलों के ड्राइंग रूमों को छोड़ कर हर जगह रिमही बोली का चलन है। असल में रिमही और बघेली दोनों एक ही बोली हैं। बघेली नाम से रिमही का सम्बोधन करने से यह भ्रम उपजाया जा सकता है कि इसका प्रभाव क्षेत्र बघेलखंड तक ही है, किन्तु हकीकत यह नहीं है। रिमही अवध, बांदा, चित्रकूट अंचल की भी बोली है। रिमही बोली अवधी,भोजपुरी, बुन्देली और वृज की तरह प्राचीन है। इसमें बड़ी मात्रा में सदियों से गीत, कविता, कथा-कहानी, नाटक, निबन्ध लिखे जा रहे हैं। लोक साहित्य का तो रिमही में प्रचुर भडांर है। डा0 हरांश राय बच्चन ने उत्तर प्रदेश के लोक गीतों का जो संकलन प्रकाशित किया था उसमें सर्वाधिक लोक गीत रिमही बोली के हैं। लेकिन रिमही बोली की धरोहर को खोजने, सभांलने और प्रकाश में लाने के लिए संगठित तरीके से प्रयास करना तो दूर की बात है।
बघेलखंड में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय दो प्रदेश सरकार द्वारा नियंत्रित विश्वविद्यालय हैं। अभी-अभी एक प्राइवेट विश्वविद्यालय भी जन्मा है, किन्तु रिमही की लोक सम्पदा और इसके साहित्य को सहेजने के लिए व्यस्थित ढंग से काम ही नहीं शुरू किया गया। वैसे इस क्षेत्र में रिमही के प्रसार-प्रचार के लिए कई साहित्यिक संस्थाओं की उपस्थिति अखबारों के माध्यम से मिलती है, किन्तु इनका काम-काज कवि सम्मेलन और शाल- नरियल सम्मान की औपचारिकता के आगे नहीं बढ़ पाता है।
कवि सम्मेलन होते रिमही के नाम पर किन्तु रिमही थोड़ी देर बाद ही हाशिए की ओर धकेल दी जाती है।
हिन्दी तो हमारे ललाट केशर-चन्दन से रचा-बसा त्रिपुन्ड है। किन्तु अपने ही आंगन में बघेली का तिरस्कार कतई उचित नहीं कहा जा सकता। रीवा विश्वविद्यालय इस इलाके का पहला विश्वविद्यालय है और इसकी शुरूआत पर इस क्षेत्र के प्रबुद्धजनों को आशा थी कि वह रिमही के साहित्य, संस्कृति, पुरातत्व के संवर्धन व विकास के लिए सहेजने का काम करेगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ और रिमही को बचाने, उसके साहित्य को उसकी लोक परम्परा को संरक्षित करने की विश्वविद्यालय ने ईमानदारी व लगन से काम करने की कभी जरूरत नहीं समङी।
हिन्दी के अर्न्तगत बघेली का एक पाठ या एक पेपर निर्धारित कर देने से विश्वविद्यालय का दायित्व समाप्त नहीं होता है। रिमही बोली पर गाहे-बगाहे कभी कोई शोध या प्रोजेक्ट होता है भी तो रिमही से अनजान लोगों के जिम्मे सौंप दिया जाता है। यहां गैर बघेली रीतिकालीन दरबारी कवि के लिए शोध पीठ स्थापित हो सकती है, किन्तु रिमही के लिए क्यों नहीं? विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति स्थानीय थे, किन्तु रिमही उपेक्षित ही रही। बाद में भी कई बार इस इलाके के कई नगीने कुलपति बने किन्तु किसी ने भी अपनों द्वारा मिली उपेक्षा से उपजी रिमही की सिसिकियों को नहीं सुना। बाहर से आयात होकर आए कुलपतियों से तो ऐसी बांझ आशा करना ही बेकार है। यह भी विडम्बना है कि विश्वविद्यालय का आधे से ज्यादा स्टाफ घर-बाहर रिमही बोलता-समझता है, किन्तु अपनी बोली-बानी के लिए कभी कुछ न करने की शपथ ले रखी है।
बघेलखंड के सतना, रीवा, सीधी, सिंगरौली, शहडोल, उमरिया और अनूपपुर जिलों में शहरी आबादी घर के बाहर हिन्दी बोलती है, लेकिन आपसी बातचीत में घर, खेत- खलिआन में रिमही का उपयोग होता है। इस तरह इस क्षेत्र में हिन्दी अल्पसंख्यक हैं, किन्तु एक मिथक यह पसर गया है कि यह इलाका हिन्दी भाषा-भाषी है जिसकी बोली-बानी भी हिन्दी है। लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। असल में हम बोली के मामले में अभी तक एक तरह की हीनता ग्रन्थि के शिकार हैं।
औपनिवेशक गुलामी ने हमारी सोच को भ्रष्ट किया है।
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पूरी ताकत से यह स्थापित करने में सफलता लूट ली है कि देशी भाषा-बोली का व्यवहार गंवार लोग करते हैं। सन् 1947 तक बघेलखंड देशी रियासत के आधीन रहा। यहां शिक्षा के साधन और सुविधाएं, खासतौर पर उच्च शिक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं रहा। यहां लोग प्राथमिक- माध्यमिक तक ही शिक्षा ले पाते थे। यह योग्यता इन्हें सिपाही, फारेस्ट गार्ड, पटवारी, क्लर्क, प्राइमरी का मास्टर, चपरासी बनाती थी। शासन चलाने के लिए बाहरी लोग आते, जिनका इस अंचल और अंचल की बोली रिमही से कोई लेना-देना व सरोकार कभी नहीं होता था। वे हिन्दी अंग्रेजी बोलते थे और उनके सम्पर्क में आए स्थानीय लोग भी इसी बोली-बानी को बरतने के लिए मजबूर थे।
रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने सिंहासन पर बैठते ही राज्य के सरकारी कामकाज की भाषा-बोली रिमही घोषित कर दी किन्तु शासन चलाने वाले बाहरी लोगों ने बेहद चतुराई से इसे होने नहीं दिया। रिमही उच्च वर्ग के जनान खाना और चूल्हा- चौके में परिक्रमा करती रही किन्तु आम आदमी और कुछ साहित्यकारों ने रिमही कसर पर बैठाया। लोक-मन रिमही के साथ रहा और बाजार ने अपनी छाती से लगा कर रखा। रिमही के सम्मान और अनुसंधान का अर्थ यह कतई नहीं है कि हिन्दी को क्षति पहुचाई जाए। बोलियों के विकास से तो हिन्दी का भाषाई लोकतंत्र स्थापित होगा और हिन्दी को रिमही के विशाल भंडार का खजाना मिल जाएगा। बोलियों के साथ हिन्दी की आवाजाही बढ़ेगी और हिन्दी में आया ठहराव टूटेगा।
रिमही के रस-कलश से एक बूंद भी जिन्हें नसीब नहीं हुई है पे अक्सर कहते हैं कि साहित्य के नाम पर रिमही में है क्या? यह सवाल गैर-लोकतांत्रिक और बोली-भाषा को लेकर सांमती सोच की उपज है। रिमही की सबसे बड़ी थाती उसका सहजसर ल सौन्दर्य है। कभी अपभ्रंश के कवि ने कहा था कि नायिका बिना किसी आभूषण और बनाव सिंगार के, फटे पुराने कपड़ों में भी ऐसी है कि आते-जाते रसिकों को उठक-बैठक कराती है।
रिमही में भी वही सामथ्र्य है। इसमें मौखिक परम्परा का विपुल साहित्य है और लिखित में भी हर विधा का साहित्य लिखा गया किन्तु साधनों का अभाव, क्षेत्र में जमीं स्थायी आर्थिक दरिद्रता ने मुद्रण-प्रकाशन-वितरण की राह रोक रखी है। आज रिमही के छितराए साहित्य को खोज कर सामने लाने की जरूरत है। रिमही में अपार सम्भावनाएं हैं। जरूरत केवल इतनी है कि उसके ही आत्मीय-जन एक जुट होर उसे गौरवपूर्ण स्थान पर विराजने के लिए सक्रिय हों। 
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 0925174450.

2 comments:

  1. yaha ki swarthparak rajnaitik netayo dwara yaha ki sanskratik virasat,boli,lokgeet,lok nritya ityadi ko sanrakshit karne hetu kabhi bhi pahal nahi ki gayi,isliye yah boli samraddh hote huye bhi upeksha ke aanshu bahati lachar nazar a rahi hai-surya bhan kushwaha,satna,m.p.

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  2. रिमही कविता
    अइसन शहर पसारिस गोड़
    पहुंचा गांव गली को तोड़
    बिल्लियाइगा मनई फेर
    बस अपनेन का मानइ शेर
    भागै मनई हुर्रा पेल
    हितुआरस मा गिरिगै गांज
    भाई चारा रोबै आज
    खूब तरक्की मनई कीन्हिस
    सोरथ के लपकउरी लीन्हिस
    रहे जउन चिरई अस भइया
    आज काल उईं होइगे बाज
    होइगा सबतर उनखर राज
    कलुवा केर मड़इया भर मां
    हमहीं आपन गांव देखान
    सगला मनई दउडत भागत
    शहरै मांहीं आय सकान।

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