Friday, February 1, 2013

गाँधी वध से ज्यादा संगीन है उनके विचारों की हत्या

चिन्तामणि मिश्र
महात्मा गांधी ने भारत में लगभग बत्तीस साल आजादी के लिए विभिन्न आन्दोलनों का नेतृत्व किया और देश पर शासन कर रहे अंग्रेजों की बिदाई के गवाह भी रहे। यदि 30 जनवरी 1947 को गोडसे ने उनका वध न किया होता तो वे भारत को गणतंत्र बनते और संविधान की पवित्र पोथी के दर्शन करते हुए देश को संविधान अंगीकृत करने के भी साक्षी होते। वे जब इस धरती से विदा हुए तब भारत सार्वभौमिक अधिकार सम्पन्न गणतांत्रिक राष्ट्र बनने से कई साल दूर था। गांधी के सामने भारत को डोमेनियन स्टेटस का दर्जा जरूर मिल गया था और राजकाज ब्रिटिश ताज की चौधराहट में अंग्रेज गर्वनर जनरल के आधीन था। गांधी ने आजादी के लिए जितनी ईमानदारी से अपना योगदान दिया वह लोक-विदित तो है ही, किन्तु आजाद भारत कैसा होगा, उसकी शासन व्यवस्था किस तरह संचालित होगी, इसका उन्होंने चिन्तन भी किया और इसे सन् 1909 में हिन्द स्वराज्य नाम से पुस्तक लिखी। हिन्द स्वराज्य गांधी दर्शन का मैनफेस्टो है। गांधी बहुआयामी चिन्तक थे। होना तो यह चाहिए था कि आजादी मिलने के बाद देश का संचालन गांधी के बताए रास्ते से किया जाता लेकिन ऐसा नहीं किया गया और गांधी- दर्शन को परखने तथा आजमाने का अवसर ही नहीं आया। गांधी का चिन्तन आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था पर बड़े अधिकार के साथ विवेचना करता है। हिंसा, साम्प्रदायिकता, भोगवाद, बैर-भाव का उन्होनें जमकर विरोध किया और स्वदेशी, अहिंसा, कुटीर उद्योग, चर्खा-खादी, समरसता अपनाने पर जोर दिया किन्तु गांधी के सपने कभी आकार नहीं ले सके, वे सपने ही रहे। हकीकत कड़वी है, किन्तु सच्चाई यही है कि गांधी दर्शन की देश की सत्ता पर विराजने वालों ने राजघाट में समाधि दे दी। गांधी का अपने अन्त समय तक वही सपना रहा जो उन्होंने हिन्द स्वराज्य में देखा और दिखाया था। 

गांधी ने 9 अक्टूबर 1945 को जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा था कि मैं हिन्द स्वराज्य में लिखी राज्य पद्धति पर कायम हूं, किन्तु नेहरू ने दो दिन बाद उनको उत्तर देते हुए पत्र लिखा कि मैंने बीस साल पहले उसे पढ़ा था और तब भी वह मुझे असलियत से परे लगा था। अड़तीस साल हो गए जब हिन्द स्वराज्य लिखी गई थी तब से दुनिया पूरी तरह बदल गई है। इस तरह गांधी के मनपसन्द राजनैतिक उत्तराधिकारी नेहरू ने उनके दर्शन-सिद्धान्तों में पलीता लगाते हुए उन्हें बता दिया कि देश उनके सिद्धांतों पर नहीं चलेगा। वैसे जहां तक गांधी दर्शन के साथ स्वयं गांधी बहुत दूर तक नहीं चल सके। अहिंसा की नींव पर खड़े गांधी की प्रथम विश्व महायुद्ध में सक्रिय भागीदारी थी और दूसरे विश्व महायुद्ध में अंग्रेजों की सेना में भारतीयों को शामिल हो जाने की अपील उन्होंने की थी। कांग्रेस में ऐसे कई नेता थे जिन्होंने गांधी के इस कदम का विरोध किया था। आम आदमी को बड़ी उलझन होती है जब वह भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों की फांसी की सजा के बदले जाने के लिए वायसराय से अपील न करने के लिए इंकार करते गांधी को देखता है और दूसरी ओर गांधी को अंग्रेजों की हिंसा के लिए भारतीयों को सेना में भरती होने की अपील करते देखता है। देश के विभाजन पर उनकी प्रतिक्रियाए इतिहास की धरोहर हैं। अपने मृत शरीर पर देश के विभाजन होने की भीष्म प्रतिज्ञा करने के बाद बंटवारा मान लेने वाले गांधी को इतिहास किस तरह याद करेगा, लिखना यहां अनुचित होगा। लेकिन गांधी ने सत्य अहिंसा के लिए जो जीवन्त मौका देश विभाजन के समय मिला था उसे गंवा दिया।

तत्कालीन घटनाक्रम जो इतिहास बन गया है उसके भीतर प्रवेश करने पर साफ समझ में आ जाता है कि देश विभाजन के प्रसंग में गांधी को अंधेरे में रखा गया और अगर साफ-साफ कहना पड़े तो बे-हिचक कहा जा सकता है कि गांधी के साथ निर्मम विश्वासघात किया गया। उन्हें मौत का खौफ या जीवन का कोई मोह अचानक जकड़ बैठा था, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु यह हकीकत है कि उनको धोखा दिया गया। इसे किसने किया यह बताने की जरूरत नहीं है। गांधी स्वदेशी अर्थव्यवस्था के समर्थक थे किन्तु सत्ता में आते ही उनके अनुयायियों ने आधुनिक औद्योगीकरण का रास्ता पकड़ लिया। गांधी चाहते थे कि आजाद भारत का संविधान विकेन्दीकरण के आधार पर बनना चाहिए। उनकी धारणा थी कि प्रदेशों की स्वायत्तता ही स्वराज्य को विकसित करेगी। प्रदेशों के विकास में केन्द्र की शक्ति निहित है, अन्यथा केन्द्र सर्वग्रासी बन जाएगा। गांधी की बात कांग्रेस ने अनसुनी कर दी और न सिर्फ केन्द्र को महाबली बनाया बल्कि प्रदेशों की स्वायत्ता पर आक्रमण करने के अधिकार भी केन्द्र सरकार ने अपने हाथ में रख लिए। औद्यौगिक केन्द्रीकरण के कारण बड़े शहरों और महानगरों की बात छोड़िए मझोले शहरों तक में अतिक्रमण के नाम पर झुग्गियों को बुलडोजरों से साफ करने का काम चलता रहता है। कोई यह देखना नहीं चाहता कि ये लोग कहां से आए हैं और क्यों आए हैं। मूल संविधान में पंचायतों का उल्लेख नहीं था, जबकि गांधी दर्शन ग्राम पंचायतों को शक्ति सम्पन्न बनाने की बात करता है। बाद में पंचायतों के गठन का संविधान में समावेश तो किया गया किन्तु पंचायतों को राज्य के आधीन रख दिया और राज्यों ने पंचायतों को अधिकार विहीन रख कर उनके सिर पर नौकरशाही को बैठा दिया। पंच, सरपंच विकास के लिए पूरी पंचायत की रजामन्दी होने पर भी एक ईट तक नहीं रख सकते जब तक नौकरशाही न चाहे। पंचायती राज्य के नाम पर पंचोंसर पंचों को नौकरशाही ने भ्रष्ट होने का प्रशिक्षण जरूर दे दिया।

गांधी ने प्रकृति की ओर वापस लौटने के सिद्धान्त पर बहुत जोर दिया था। खेती के लिए प्राकृतिक खाद की सिफारिश करते हुए उन्होंने साफ किया था कि फसल को औद्योगिक उत्पादन की प्रक्रिया की तरह देखेंगे तो धरती को बांझ बना देंगे। हम यह नहीं कह सकते कि भारत के भविष्य के बारे में गांधी ने जो आशा की थी और जो रास्ता सुझया था वह सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन गांधी को बिना कसौटी पर परखे खारिज कर देना गांधी के साथ अन्याय तो होगा ही ऐसा करना देश हित में भी सही नहीं होगा। हमारे देश ने हमेशा अपने जीवन और अपनी संस्थाओं में परिवर्तन किए भी हैं। देश की यह प्रतिभा अभी मिटी नहीं हैं। हमारे लिए जरूरी केवल यह होना चाहिए कि हम जड़ हो चुकी अपनी इस धारणा को बदलें कि गांधी का नाम मजबूरी हैं। गांधी- दर्शन को एक बार कुहासे से बाहर लाना चाहिए और उसकी परख करनी चाहिए। परख के बाद ही यह तय किया जा सकता है कि गांधी-दर्शन का औचित्य क्या और कितना है। आज गांधी की तरफ लौटने की जरूरत है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।


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