Saturday, February 9, 2013

जब आवै संतोष धन..


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
गरीबी में भी हमारे पास संतोष और सुख की पूंजी थी। यह मार्क्‍स की पूंजी से भिन्न थी। इसमें भौतिक सुख भले न रहा हो आत्मिक सुख था। प्रगति और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम शामिल क्या हुए, पुरानी पूंजी भी बचा नहीं पाए और उस जगह पर पहुंचते हैं जहां कोई अपना नहीं दिखता दूर-दूर तक।
विरासत की यह पूंजी अब सिर्फ यादों में है। जिनके लिए सपने देखे थे, उनने भी अपने सपने पाल लिए, अर्थ की इस रेस में घर- परिवार पत्‍नी पुत्र, भाई-बहन, दादा-दादी, काका-काकी, नाना- नानी, मित्र-पड़ोसी के रिश्ते सिर्फ स्मृतियों में रह गए। संयुक्त परिवार खत्म हुए तो समाज, व्यक्ति केन्द्रित हो गया। पति-पत्‍नी और पुत्र पुत्री में परिवार की संज्ञा सिमट गई। अधिक से अधिक पैसा कमाने की प्रवृत्ति में मां-बाप ने बच्चों पर विराम तो लगाया, उन्हें "पालना घर" भेजकर या दाई (नौकरानी) के हवाले सौंपकर मुक्ति पा ली। स्नेह-ममता, दुलार-चुम्बन की उस उम्र के सपने को रौंद दिया। बच्चे ने बहन नहीं देखी, काका-काकी, दादा-दादी नहीं देखी। ये रिश्ते संबंध थे, लेकिन उनसे परिचित कराना पिछड़ापन और प्रगति में बाधक मान लिया गया। जिन संबंधों से संवेदना सहयोग के बीज उगते हैं, वे बोए ही नहीं गए। परिणाम यह हुआ कि संवेदित प्रसंगों में भी ये लड़के विगलित नहीं होते।

मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ करुण भाव से तिरोहित हो गए। भावनात्मक शून्यता से पले बढ़े ये लड़के यदि आपराधिक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हुए तो दोष किसका? हम अक्सर अपने को दोषमुक्त करने के लिए इसे समाज में फैली विकृतियों, टीवी, इंटरनेट पर डालकर छुट्टी पा जाते हैं। हमने कभी अपने बच्चों के लिए समय नहीं निकाला। उन्हें आधुनिकता के इतने उपकरणों में घेर दिया कि उनका संसार ही मशीनी हो गया। प्रसिद्ध कवि पाव्लो नेरुदा ने कहा था-"हमारी सारी प्रगति और आधुनिकता बेकार है, अगर हम इन नन्हें फूलों को नहीं बचा पाए।" जहां हम खड़े हैं, वहां से पीछे लौटना तो असंभव है, लेकिन जो हमारी पहचान थी उसके बारे में ठहरकर सोचने और दौड़ के इस क्रम में जिसका "टारगेट" ही न दिख रहा हो, उस पर चिंतन मनन करना क्या आवश्यक नहीं दिखता? जिस देश के चिंतन की महान परम्पराएं रही हों। जिसने जीवन को समझने के लिए विराट ग्रंथ रचे वही देश झिलमिलाते आभासी सुख की अंधेरी गलियों में खो जाए। दुख में मल्हार गाने वाले, सुखों को चुनौती देते रहे हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में सुख की तलाश करने वाले लोगों के भद्दार किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है। लोक और समाज में वे कभी भी आदरणीय नहीं हुए। शहरों में फैले भ्रष्टाचारी तंत्र से ध्यान बंटाने के लिए शासन का विकेन्द्रीकरण गांवों की समावेशी संस्कृति को लीलता जा रहा है। काम करने वाले हाथों को मनरेगा का झुनझुना और गरीबी अति गरीबी रेखा का राशन थमाकर निठल्ले और कामचोरों की फौज खड़ी करके सरकारें निर्विकार भाव से खुश हैं।

प्रगति और विकास के नाम पर सुरसा के विशाल मुंह की तरह फैलते शहरीकरण, उद्योगीकरण और उदारीकरण के भयानक जंगल में कुटीर उद्योग, खेती, पशुपालन दम तोड़ रहे हैं। और इनसे जुड़े गांव जवार हर क्षण आशंका के साए में जी रहे हैं कि पता नहीं कब सरकारें, कॉरपोरेटों के लिए उनकी जमीन और आम निस्तारी जंगल पर कंक्रीट के महल खड़ी कर दें। छोटे उद्योगों, खेती, पशुपालन से जुड़े लोगों के ऊपर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं। माल कल्चर, मॉस कल्चर को समाप्त करने के दहलीज पर खड़ी कह रही है, "तुम्हें पिछड़ा गरीब नहीं रहने देंगे, रोजगार देंगे" और वह टेक्निकल नान टेक्निकल के नाम पर ठगा जा रहा है। गांव शहर बन रहे हैं, गांव की आत्मीयता शहरी होकर व्यक्ति केन्द्रित होती जा रही है। गांवों में बसने वाले हिन्दुस्तान की कल्पनाएं सिर्फ कविताओं में रह जाएंगी। सुजलासुफला, शस्य श्यामला धरती अधिनायकों का जय-जयकार करती हमें हमारे अतीत को चिढ़ाएंगी।

अमीरी की दौलत में हमने अपनी आत्मा, देश और सभ्यता को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। लोक व्यवहार और गीतों पर रीमिक्स ने कब्जा कर लिया है। लड़की की विदाई पर न सिर्फ पूरा गांव दुखी होता था वरन लोकगीतों में तो पशु पक्षियों के भी रोने और उदास होने के स्वर मिलते थे। खूंटे से बंधी गाय और भैंसे उदास और चारा-पानी, खाना पीना छोड़कर लड़की को जाते हुए देख रही हैं कि इसी के हाथ से इतने दिनों तक हमने दाना-सानी-भूसा खाया था। पशुता और मनुष्यता का पार्थक्य समाप्त करने वाले भाव गीत स्मृतियों में हैं। उन्हें जीवन्त रखने की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हुआ जा सका। बड़े और छोटे के बीच के अनुशासन की सीमा रेखा खत्म करने का अभिशाप समाज के ऊपर है, किंबहुना हम सबके ऊपर। नौकर के रहते हुए अपने बेटों से अतिथियों के आवभगत, सत्कार के संस्कार अनजाने ही मिल जाते थे। दूसरों के सामने उठने बैठने-बात करने का संस्कार सहज रूप से मिलने के दिन व्यस्तताओं ने छीन लिए। जब से स्कूल जाना शुरु हुआ तब से हर विषय और कार्य की घंटी बजने का क्रम सेवा निवृत्ति तक कायम रहा। लेकिन घर रूपी स्कूल की घंटी बिना बजे और बजाए आज भी बज रही है। उसके कालखण्ड कभी नहीं बदले। वह घंटी सचेत करने की है, समाज के आत्म चेतन की यह घंटी नहीं बज रही है, उसे बजाना, सुनना और समझना भी होगा, क्योंकि हमारा सब कुछ धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। हमारा संतोष,सुख भी दूसरों पर निर्भर है। जो नितांत निजी था वह अब प्रश्नांकित है। यह मंथन का समय है अन्यथा हम मिट जाएंगे।

शिष्टता और सभ्यता आचरण के विषय हैं। व्यवहार से हम व्यक्ति के संस्कार का मूल्यांकन करते हैं। तमाम वैश्विक उपलब्धियों के बाद आचरण में अपने माटी के संस्कार से विलग हो अपनी संस्कृति का क्षरण है। गरीबी और अमीरी भारतीय दर्शन में तरु की छाया और हाथ का मैल थी। इसका संबंध दिल और दिमाग से था। बड़े-बड़े अमीर दिल से गरीब और गरीबों की अमीरी के अनेक उदाहरण हमारी थाती हैं। गरीबों में दान की विराट परम्परा आज भी गावों में है। उनके कमाई का कुछ प्रतिशत दूसरों के लिए भी है। अर्थ की इस अंधी दौड़ मे रिश्ते और सम्बन्ध हाशिए पर हैं। गजनवी सारा लूट का माल हाथ में लेकर जन्नत में जाना चाहता था। मृत्यु के समय बंधी मुट्ठी खुल गई। धन की कोई सीमा नहीं है, संख्याएं अनंत हैं। धन सुख का किंचित साधन हो सकता है, साध्य नहीं। निश्चिंतता की नींद धन संग्रह में नहीं है। मन की लगाम को कसकर जीवन का अर्थ जीवन के लिए जीना, करना ही सच्चा मनुष्यत्व है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

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