Friday, February 1, 2013

चली हैं कुल बोरनी गंगा नहाय

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 
देश के करोड़ों लोगों की आस्था का कुम्भ इन दिनों प्रयाग के गंगा-यमुना के संगम पर छलक रहा है। सरस्वती, आस्था के इस सैलाब में लुप्त है, शायद इसलिए कि भक्ति के इस प्रवाह में ज्ञान को मुक्ति दे दी गई है। मुक्ति की बलवती इच्छा ने ही कुम्भ को महिमा दी है। एक बार सामान्य ढंग से मामा के सामने मुंह से निकल गया कि वे इलाहाबाद संगम में स्नान करने गए हैं। उन्होंने समझया भानजे संगम, इलाहाबाद में नहीं प्रयाग में है, वह पूरा क्षेत्र प्रयाग कहलाता है, जहां गंगा और यमुना मिलती है, अपने देश में इतिहास पर पुराण हमेशा झंडा गाड़ता रहता है। हमने इतिहास से कम पुराण से अधिक सीखा है। पुराण कहते हैं कि सुर और असुरों के इस देश में समुद्र मंथन हुआ। दही के मथने से मक्खन निकलता था, सो समुद्र मंथन से एक नहीं चौदह दुर्लभ वस्तुएं निकलीं जिनमें अमृतकलश भी था। श्रम के समान विभाजन का पहला सिद्धान्त सुरों ने तोड़ा। सभी कुछ उन्होंने अंगीकार कर लिया और वारुणी (शराब) फेनिलपेय असुरों को पकड़ा दी। लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, रम्भा (नर्तकी) शंख, ऐरावत, कल्पवृक्ष, कामधेनु, धनुष, धन्वन्तरि (वैद्य), उच्चैश्रवा घोड़ा सुरों ने हड़प लिया। विष शिव ने पी लिया(वे सुर जाति के नहीं थे) शमन के लिए चंद्रमा का माथे पर धारण कर लिया। अमृत कलश को लेकर संघर्ष हुआ। युद्धों में भागने में प्रवीण देवराज का लंपट पुत्र जयंत कलश लेकर भागा। कहते हैं कि जिन चार स्थानों पर कलश रखकर उसने क्षणिक सांस ली, वहां कुम्भ से दो चार बूंद अमृत छलक गया। वे स्थान थे नासिक, अवंतिका, प्रयाग, और हरिद्वार। सुरों के अपने अपने लोक थे, वे जमीन पर नहीं थे चाहे वे पालनहार विष्णु के हों, जन्मदाता ब्रrा के अथवा देवराज इंद के। छलके हुए अमृत के बूंद बारह वर्ष बाद इन स्थानों पर अवतरित होते हैं। इन्हीं की प्राप्ति के लिए संगम पर यह अकल्पनीय समूह कल्पवास कर रहा है। महीने भर में किसी दिन वह पुण्य लाभ प्राप्त कर लेगा। निश्चित रूप से इस अवैज्ञानिक आस्था पर लुप्त सरस्वती मुग्ध होती होंगी।
आज जब पढ़ता और सुनता हूं कि पवित्र गंगा में एक करोड़ लोगों ने डुबकी लगाई तो पवित्र शब्द पर ध्यान जाता है। क्या गंगाजल अपनी पवित्रता कायम रख सका है? क्या वही गंगा है जिसे भागीरथ ने कितनी तपस्या से धरती पर उतारा था? शायद नहीं, परंतु लोगों की आस्था में आज भी वही गंगा है। देश की शेष नदियां सूखती जा रही हैं। सरित प्रवाह वर्षा के बाद रुक जाता है।
क्या आस्था के साथ भी ऐसा ही होगा? पहले आस्था आत्मा का अंत:स्वर थी, आंखों से झरती थी, चेहरे पर दिखती थी। अब आस्था और भक्ति प्रदर्शन की वस्तु है। कल्पनास में प्राय: विरक्त और साधु संतों का सत्संग और समागम होता था। समस्त प्राणियों में शायद मनुष्य को ही सबसे अधिक मुक्ति की चिंता है क्योंकि वह सबसे अधिक बंधन में है। पुनजर्न्म में विश्वास करने वाले अगले जन्म में बेहतर जीवन पाने के लिए पुण्य स्नान करते हैं या आवागमन से छुटकारा पाने की कामना लिए शुभ मुहूर्त की तलाश में रहते हैं। यदि वे करोड़ों निठल्ले स्वर्ग याचक हाथ एक महीने के कल्पवास में एक घंटे भी गंगा की सफाई का पुण्य निश्चय कर लें तो गंगा, उद्गम से सागर संगम तक प्रदूषण रहित हो जाय। लेकिन वे तो पाप धोने के लिए आए हैं, अत: गंगा में पाप ही पाप बह रहा है। रैदासों की गंगा तो कठौती में बहती है।
रोजाना कमाकर खाने खिलाने वाले श्रमजीवी के भाग्य में अमृत कहां? अमृत तो खाए, पिए अघाए लोगों को जयंत ने बांट दिया था। गंगा तो सुर सरि है। उसमें मनुष्यों के लिए स्थान कहां? श्रम जीवियों को फुरसत कहां? स्वर्ग पर भी कब्जा देवता बने मनुष्यों का ही है, आम लोगों का नहीं। देश भर के देवता बने मनुष्यों के लिए स्नान ध्यान दर्शन की विशेष व्यवस्थाएं है। इसीलिए ऐसे तीर्थ दर्शन और पुण्य की निर्थकता कबीर ने स्वीकार की।
उन्होंने लोक की इस अंधी आस्था पर व्यंग्य किया। भक्ति स्त्रीवाचक है, विरक्तों को भी स्वर्ग में स्त्री दर्शन करना पड़ेगा।
नाच गाना, गीत संगीत इन्हीं सबकी परिकल्पना तो स्वर्ग का सुख है। कबीर ने जिस लोक की गंगा स्नान देखा था, वह अब बहुत बदल चुका है। अब गंगा स्नान की तैयारी पहले जैसे अभावों वाली नहीं रही हां पहले भाव थे अब देखाव है- ‘चली हैं कुल बोरनी गंगा नहाय। सेतुआ कराइन, बहुरी भुजाइन, घूंघट ओढ़े भसकत जाय। गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूड़े दिहिन धराय। बिछुआ पहिरिन, ओंठा पहिरिन, लात खसम के मानिन जाय।’कबीर को स्वर्ग का विशिष्ट स्थान नहीं चाहिए था। मुक्ति पाने के लिए उन्होंने कभी गंगा स्नान नहीं किया होगा।
कुम्भ के पर्व स्नान समय भी साधु संतों के विवाद का कारण होने लगा है। पहले स्नान का फल आम स्नानार्थी को नहीं मिल सकता। जो माया मोह से मुक्त है उन्हें किस फल प्राप्ति की चाह है। संसारी तो मां से मांगने गया है पाये न पाये संतुष्ट है। संगम न मिला, न सही, गंगा में डुबकी लगा ली। गंगा न मिली जुमना ही सही। गांव में रहने वाला लोटा भर पानी सिर में डालते ही ‘गंगा च जमुना चैव नर्मदा सरस्वती’का आवाहन कर लेता है। उसको अपने पर, अपने कर्मो पर सबसे अधिक विश्वास है कबीर की तरह। उसने जो भी रचा है दुख की सहायता से रचा है। वाल्मीकि की करुणा जनित दुख से रामायण की रचना हुई। सीता की वेदना भवभूति ने अनुभव की, इस समानुभूति ने उत्तर रामचरित की रचना की और ये अनुभूतियां मनुष्य जनित हैं। हम दूसरों की संस्कृति और धर्म पर खूब थूक चुके, किंचित अपने धर्माचार्यो पर भी गाहे बगाहे दृष्टि पात कर लिया करें। पशुओं की संख्या क्या इसीलिए कम नहीं दिख रही कि मनुष्यों के कृत्य देखकर लज्जा से वे मरे जा रहे हैं। पशुओं का तो ऋ तुचक्र है वे आज भी प्रकृतिस्थ हैं। मनुष्य वजर्नामुक्त है, उसने प्रकृति को जीतने का भ्रम पाल लिया है। प्रायश्चित के विधानों में एक गंगा स्नान भी है। हमारी मानवता मर कर भी पर्व स्नान कर रही हैं।
हमारे एक सहपाठी लंगोटिया यार के कल्पवास का बारहवां वर्ष है। लोकमतानुसार वे अपने जीते जी अपना कर्मकाण्ड (मृत्योपरांत वाला) करेंगे। खाते पीते घर के हैं, सम्पन्न हैं, फिर भी देखना चाहते हैं अपना कर्मकाण्ड। अन्य कल्पवासियों ने किया है, इसलिए कर रहे हैं, अन्यों से बेहतर दिखाने के लिए।
माया मोह से वितर हैं परंतु प्रत्येक दिन पोते के विवाह की बातें अनेक लोगों से करते हैं, सपने में नाती पोते आते हैं। चुनाव, राजनीति, जाति पाति, स्नान, पूजा, स्वर्ग और धरती का सुख एक साथ साध कर चल रहे हैं। पापी मन गंगा स्नान से चिहुंक रहा है, चाहता हूं वे पुण्यात्मा हैं, स्पर्श कर दें, मैं पवित्र हो जाऊं। पता नहीं अभी कितने पाप शेष हैं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

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