Monday, February 25, 2013

संतों! देखहुं जग बौराना!


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
बिना किसी निमंत्रण पत्र के आस्था के महाकुम्भ, पुण्यों से भरा, प्रयाग में पिछले एक माह से छलक रहा है। वे बड़भागी हैं जिन्हें अमृत की वह बूंद जो कभी घड़े से छलकी थी पवित्र कर गई होगी, परंतु मुहूर्त के उन क्षणों का लाभ सिर्फ अखाड़े के साधु संतों को ही मिला होगा, क्योंकि आम जनता के लिए रास्ते रुके हुए थे। कहते हैं गंगा, जमुना, सरस्वती के संगम पर महाकुम्भ एक धार्मिक महोत्सव ही नहीं है, आस्थाओं संस्कृतियों विश्वासों का महापर्व भी है। यदि गंगा स्नान से पुण्य नामक पदार्थ मिलता है, ऐसा विश्वास है तो निश्चित रूप से यह अंधविश्वास से अधिक कुछ नहीं है। हमारी वैज्ञानिक सोच को क्यों तब काठ मार जाता है जब हम आस्था के नाम पर ठगे जाते हैं।

अंधविश्वासों और रुढ़ियों के विरुद्ध हम क्यों सवाल नहीं उठाते? हमारा समाज का राजनैतिक वर्ग जो विकास की बात करते हैं, शायद इसलिए चुप रहते हैं, कि यह धर्म का क्षेत्र है। इसकी आंच से हम झुलस जाएंगे। हमसे तो बेहतर नानक, कबीर और रैदास थे जो कठौती में गंगा रखते थे। वैसे भी गंगा ब्रहम्मा के कमण्डल में बहुत वर्षो तक अवस्थित रही। लाखों लोग स्वर्ग की पंक्ति के लिए महीने भर से कल्पवास कर रहे हैं। घर के प्रपंचों में ईश्वर चिंतन हो नहीं पाता। गंगा किनारे प्रपंच कम हो जाते हैं, कौन जाने? संसार का सबसे बड़ा मेला प्रयाग में उमड़ता है। मेला मिलने से होता है, यहां भीड़ में कौन किससे मिलता है, हां बिछड़ने वालों की उद्घोषणा लगातार होती रहती है। इस आस्था में ज्ञान की मौजूदगी का अभाव है। यदि इस आस्था को धर्म कहते हैं तो मुझे विवेकानन्द की वह उद्घोषणा याद आती है कि मैं धर्म और आध्यात्म की भूमि भारत हूं, मैं महान हूं, परंतु मैं दरिद्र, वंचित, शोषित भारत हूं-यह मेरा सच है और इस सच के आगे मैं धर्म और आध्यात्म को तिलांजलि देता हूं। मेरा धर्म दरिद्र दुखी भारत है।

हमारे जीवन की सबसे बड़ी विसंगति ढोंग है जिसे हम पीढ़ी दर पीढ़ी ढोते हुए गौरवान्वित होते रहे हैं। ढोंग को हमने साध कर महिमामंडित किया है। धर्म के नाम पर निर्थक अवैज्ञानिक रूढ़ियां और तात्विक विवेचन रहित आचार परम्पराएं चल पड़ती हैं। सच तो यह है कि धर्म के मूल तत्व को रूढ़ियों ने कमजोर किया है। महाभारत कहता है कि जो धर्म किसी अन्य धर्म के विरुद्ध जान पड़ता है, वह धर्म ही नहीं है। जो धर्म अविरोधी होता है, वस्तुत: वही धर्म है। "धर्म तो बांधते धर्म न ए धर्म: कुधर्म तत्/अविरोधी तु यो धर्म: सधर्मो मुनिसत्तम।" धर्म को बाह्यचारों और आडम्बरों से ढ़ककर हमने उसका स्वरूप ही बदल दिया। इस पाप और पुण्य की परिस्थिति जन्य परिभाषाएं रचते हुए हम पाप धोते रहे, पुण्य कमाते रहे। इस व्यवसायिक कारोबार में आत्मा मरती रही, जिसकी अनदेखी करते रहे।

जिन्होंने धर्म को गंभीरता से ग्रहण नहीं किया, उसकी अनिवार्यता में उनका विश्वास नहीं। जिन्होंने उसमें विश्वास किया उसका व्यक्तित्व भी विभाजित रहा। विश्व जीवन का एक भाग वह है जो ईश्वरमय है, जिसमें सभी जीव एक है, जिसके अणु-अणु में ईश्वर का वास है। किंतु जो व्यवसाय और जीविका का संसार है, उसे वे ईश्वर से विछिन्न मानकर चलते हैं तथा यह समझते हैं कि इस व्यवसायी विश्व में अशांति और संघर्ष, विरोध और दुराव तथा छल और प्रपंच सभी क्षम्य है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते हैं ऐसे लोग वस्तुत: पलायनवादी कहे जाएंगे। वे व्यवसाय की दुनिया में जब थक जाते हैं, तभी केवल विश्राम पाने के लिए धर्म की दुनिया में आते हैं। धर्म उनके लिए मात्र कवच है। वे रूप बदलकर आए कालनेमि से भिन्न नहीं है।

विवेकानन्द की पीड़ा को समझने का देश ने प्रयत्न ही नहीं किया। कंठी माला, आरती, घंटे, स्नान-ध्यान में मग्न लोग यह देख ही नहीं रहे हैं कि देश विकास के नाम पर किस चारित्रिक पतन की ओर जा रहा है। आस्था और अंधविश्वास के कारण देश कितनी बार पराजित हुआ, यह बताने गजनवी और गोरी नहीं आएगा, रूप बदलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आ रही हैं। हमारी भाषा बदल गई है, विकास की भाषा मातृभाषाएं नहीं रह गई।

आश्चर्य है कि धर्म ने सबसे अधिक विनाश भारत का किया और धर्म को अफीम की संज्ञा देने वाले मार्क्‍स यूरोप में पैदा हुआ। पोप के दरवाजे पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाला मार्टिन लूथर यूरोप में जन्मा जिसने स्वर्ग की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए, भारत में भी कमोवेश यही स्थिति तब भी थी आज भी है। गनीमत है कि देश किसी धर्म का मुखापेक्षी नहीं है। धर्म न तो पुस्तकों में है न सिद्धान्तों में, धर्म आचरण और अनुभूति में निवास करता है। हिंसा सर्वथा त्याज्य नहीं है। एक बार किसी ने विवेकानन्द से पूछा- "कोई शक्तिशाली व्यक्ति यदि किसी दुर्बल का गला टीप रहा हो, तो हमें क्या करना चाहिए! स्वामीजी ने तड़ाक से उत्तर दिया-क्यों? बदले में उस शक्तिशाली की गर्दन टीप दो। क्षमा भी कमजोर होने पर अक्षम्य है, असत्य और अधर्म है, युद्ध उससे उत्तम धर्म है।" वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा है। केस्टा नामक भूखे संथाल को भोजन करा कर उन्होंने कहा था "तुम साक्षात नारायण हो। आज मुझे संतोष है कि भगवान ने मेरे समक्ष भोजन किया।" यह महाभाव क्या किसी संत साधु महात्मा में बचा है। साधुओं के इन अखाड़ों की पंगत में क्या किसी दरिद्र नारायण को प्रसाद मिलता है। धर्म सभा में विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित होते हुए भी विवेकानन्द ने कभी अपने को जगतगुरु नहीं माना, जबकि अपने देश में महामण्डलेश्वर और जगतगुरुओं के धतकरम सारा देश देखते हुए भी मौन है। पाप का कुम्भ भरा होते हुए भी फूट नहीं रहा है। पता नहीं यह कुम्भ किस धातु का बना है। यदि फूट गया तो आस्था समाप्त हो जाएगी। कुम्भ फूटेगा नहीं, वह आस्था के बल पर पुष्ट है।

जिस देश के छ: करोड़ हाथ पुण्य प्राप्त कर चुके हों, उस देश में दामिनियां सुरक्षा की गुहार लगाए? भ्रष्टाचार के लिए जनता सड़कों पर उतरे? वे पवित्र हाथ ही यदि व्यवस्था सुधार में उठ जाएं तो देश का अतीत गर्वित होकर वर्तमान को आशीषे! लेकिन उन हाथों में तो पाप धोया है, प्रायश्चित किया है। देश के सबसे बड़े संत गांधी विवेकानन्द या किसी ने भी स्नान और कल्पवास से मुक्ति और मोक्ष की बात नहीं कही। कुम्भ में एकत्रित साधु संतों के स्वास्थ्य को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कॉरपोरेट भारत के बाद देश की पूंजी कहां है? सोने के भगवान से लेकर सोने के सिंहासन तक इन्हीं के पास भरे पड़े हैं और सोने के भाव ने आम आदमी का सोना मुश्किल कर दिया है। वह सोता है तो सपने देखता है, जागता है तो छटपटाता है। प्रयाग के सेक्टरों, घाटों पर मुक्तिकामी लोगों की बिलबिलाती इच्छाओं को देख कबीर चिंतित है-"संतों! देखहु जग बौराना।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

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