Saturday, November 5, 2011

वैचारिक मतभेदों के बावजूद मित्रता कायम रही

कांग्रेस की राजनीति में अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी को परस्पर विपरीत ध्रुव के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। लेकिन ऐसा था नहीं, प्राय: ऐसे मौके आते थे जब ये दोनों नेता अंतरंगता के साथ मिलते थे। खासतौर पर विन्ध्य की कांग्रेसी राजनीति में वही होता था जो ये दोनों मिलकर तय करते थे। शायद ही ऐसा कोई आमचुनाव रहा हो जब ये नेता एक दूसरे के निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार करने न गए हों। हां.. जब भी किसी मुद्दे पर मतभेद होता, उसे खुलेआम व्यक्त करने में इन दोनों महारथियों ने कोई परहेज नहीं बरता। कुंवर अर्जुन के बिना यह उनका पहला जन्मदिन है। इस मौके पर खट्टी-मीठी यादों के साथ स्टार समाचार ने बातचीत की उनके समकालीन नेता श्रीनिवास तिवारी से।
- अर्जुन सिंह से आपकी पहली मुलाकात कब और कैसे हुई?
- विद्यार्थी जीवन में हमारी मुलाकात हुई।  हम कक्षा 9वीं में पढ़ रहे थे, उसी साल रणबहादुर सिंह व अर्जुन सिंह दोनों भाई रीवा आए थे पढने के लिए। अर्जुन सिंह उस समय 8वीं कक्षा में थे।
- छात्र राजनीति में आप उन्हें किस रूप में देखते थे?
 -हम दोनों दरबार कालेज में छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। वे एक साल मुझसे पीछे के दर्जे में थे। कालेज के छात्रसंघ के चुनावों में हम सभी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। अपने-अपने साथियों व समर्थकों को चुनाव में उतारते थे। मैं महासचिव चुना गया था। बाद में वे भी छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे।
-कांग्रेस की राजनीति में आप दोनों कब और कैसे एक साथ आये?
- समाजवादियों के चंदौली सम्मेलन में यह तय हुआ कि कांग्रेस में शामिल हुआ जाए, सो 1975 में मैं कांग्रेस पार्टी मेंआया। इसके पूर्व 1952 एवं 1972 में दो बार सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बना था। मैं जब कांग्रेस में आया तब अर्जुन सिंह प्रदेश के कृषिमंत्री बाद में शिक्षामंत्री भी बने।
 -1977 में अर्जुन सिंह किन राजनीतिक परिस्थितियों में नेता प्रतिपक्ष बने?  
- कहानी यह थी कि समाजवादी गुट के कांग्रेसी तेजलाल टेंभरे को नेता प्रतिपक्ष बनाना चाहते थे। लोग उम्मीद कर रहे थे कि मैं भी टेभरे का ही समर्थन करूंगा पर मैंने अपने साथियों को अर्जुन सिंह का साथ देने के लिए तैयार किया। बात विन्ध्यक्षेत्र के गौरव के साथ के साथ जुड़ी थी। हमने अर्जुन सिंह का समर्थन किया और वे नेता प्रतिपक्ष बने।
- 1980 में अर्जुन सिंंह के कैबिनेट में आप मंत्री बने पर ज्यादा दिन निभ नहीं पाई ऐसा क्यों?
- हम दोनों के काम करने के तरीकों  एवं विचार में मतभेद मेरे मंत्रितत्व काल में हुए। उनकी सोच दूसरी थी, और हमारी सोच उनसे भिन्न थी। काम करने के तरीके से वैचारिक मतभिन्नता       आई। मुझे लगा कि इन परिस्थितियों में मेरे लिए काम करना मुश्किल होगा और मैंने पद त्याग दिया।
-कहा जाता है कि सभी नियमों को शिथिल करते हुए काम करने का फार्मूला अर्जुन सिंह को आपने दिया था?
-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। मुख्यमंत्री के पास लोकहित के अकूत अधिकार होते हैं। उसका  उन्होंने पूरा-पूरा उपयोग किया। सीएम के तौरपर उन्होंने खुद अपनी अलग शैली विकसित की।
-1985 में आपकी टिकट भी काट दी गई थी, किसे जिम्मेदार मानते हैं?
- वैसे तो 1985 में 80 निवृत्तमान विधायकों की टिकट कटी थी, लेकिन मेरी टिकट मूलरूप से अर्जुन सिंह के कारण काटी गई थी। शायद उनको भय था कि कहीं मैं सीएम न बन जाऊं। इसी आशंका के चलते उन्होंने मेरी टिकट कटवा दी। आज भी यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है।
-जब आप स्पीकर थे तब अर्जुन सिंह ने एक बार कहा था कि मुझे रीवा जाने से डर लगता है। ऐसा क्यों कहा?
-मुझे नहीं मालुम कि उन्होंने ऐसा क्यों और किस संदर्भ में कहा था।
- आप दोनों को एक दूसरे का धुर-विरेधी कहा जाता रहा है?
-हमारे मधुर संबंध थे। जब भी भेंट होती थी, मित्रवत होती रही है। हम एक दूसरे के काम भी खूब किये हैं। यह महज दुष्प्रचार है कि हम एक दूसरे के धुर विरोधी थे। अर्जुन सिंह के निधन से मुझे व्यक्तिगत बहुत दुख पहुंचा है। विन्ध्य से जुड़े हर पेचीदा मसलों पर हम दोनों साथ बैठकर विमर्श करते थे, जनहित और पार्टीहित के सवाल पर हम एक थे और मिलकर काम करते थे।
                                          (अर्जुन सिंह से रिश्तों को लेकर श्रीनिवास तिवारी से खास बातचीत 5 नवंबर2011)

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