Saturday, November 5, 2011

... हो न हो, ये है मेरा देखा हुआ



भाषा का परिवेश लोक है। काव्य शास्त्रकार कविता में मूर्धन्य स्पर्श को अनुचित और गवांरू मानते हैं लेकिन पद्माकर की कविता ‘आगे नन्दरानी के तनक पय पीवे काज। तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाढ़ो है’, का क्या करेंगे, जो शास्त्र को लोक के सामने झुकाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें पहले चरण की मृदुल विन्यास की व्यंजना देखें और दूसरे चरण के ठकार की पुनरावृत्ति देखें। ‘ठकार’ की परुषता वात्सल्य के प्रवाह में बह गई। ठाकुर (कृष्ण) के ठुनकने से ऐश्वर्य बहुत छोटा पड़ गया। जिन्होंने लोक देखा है, दूध से भरा हुआ बर्तन देखा है, मां के सामने खड़ा उसका दुलारा तनक दूध मांग रहा है, मां अनदेखी कर रही है, बालक ठुनक रहा है, वे ही इस कविता का आनंद ले सकते हैं। जिस कविता मे जितना ही लोक तत्व होगा, लोक दृष्टि होगी वह उतनी ही शाश्वत होगी, किंबहुना कालजयी भी होगी। कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रसखान किस बिना पर प्रासंगिक बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि इनकी रचनाओं में लोक समग्र रूप से उपस्थित है। एक अपढ़ भी कबीर, रहीम, तुलसी की उक्तियों का सार्थक प्रयोग अपनी बातों में करता है। आज की कविता में भावों का वह उन्मेष नहीं है, जो लोक की जीवन पद्धति थी, है। वे मात्र वर्ष या दशक की कविता बन कर रह गई है। क्योंकि उनसे उनका लोक छिन गया है, वे लोक को गवांरू-संस्कृति-परम्परा का क्षेत्र मानने लगे हैं। वह बड़ा और श्रेष्ठ कवि लेखक हो ही नहीं सकता जिसने लोक की उपेक्षा की। कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नये खराब नहीं होते। विवेकी लोग जांचकर जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं। परंतु आज विवेक ही दुराग्रही और पूर्वाग्रही हो गया है, कदापि इसी वजह से हम अनेक जगहों पर अनादृत होते हैं।
   विश्व के तमाम देशों की अपनी लोक परंपरा है। परंपराएं विचार प्रवाह को बनाए रखती हैं, उसे कभी जड़ नहीं होने देती। प्रगति का विरोध नहीं, उसे अपनी कसौटी पर कसती है, तत्पश्चात उसे स्वीकार कर परंपरा में भी शोधन करती हैं। लोक में परंपरा पर ही समाज चलता है। सामाजिक, जातीय, घरेलू, परम्पराएं समाज को गतिशील रखती हैं। परम्पराएं अविरोधी भाव से चलती हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में इनके अलग स्वरूप होते हैं। भारत का शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां लोक परंपराएं न हों। हर क्षेत्र की अपनी परम्पराएं हैं। परम्पराएं जब टूटती हंै लोगों की आस्थाएं चरमरा जाती हैं, सुख-चैन छिन जाता है। सच है कि प्रगति सरिता का प्रवाह है परंतु सरिता पर घाट बनाना, उसकी स्तुति करना, उस पर बांध बनाना परंपरा का काम है। देशी आम में परदेशी आम की कलम लगे, परंतु इसका जरूर ध्यान रहे कि उसमें जो फल लगे, उसमें अपनी मिट्टी का स्वाद रहे। अपनी अस्मिता की मिठास रहे। परंपरा मधु की तरह है, प्रगति करके चीनी बने, परंतु बीमारी में मधु दवा होती है, चीनी नहीं। कितने फूलों के मिष्ट संचय से मक्खी मधु तैयार करती है। यह हमारी परंपरा है। लोक में परम्पराओं को पर्वों और त्यौहारों तक से जोड़ा गया है। शास्त्र में वर्णित देवताओं से भिन्न, गांवों में लोक देवता होते हैं। जिनकी पूजा-अर्चना के लिए शास्त्र की शरण में नहीं जाना पड़ता, क्योंकि इनकी पूजा का विधान उनमें वर्णित नहीं है। मुझे याद आता है कि गांव के गोइड़े में जादौराय (यादव राय) का चौरा हुआ करता था। एक मंदिर था, बगल में चौरे पर हर मंगलवार को एक पंडा बाबा बैठते थे। यह एक लोक विश्वास था कि जादोराय के चौरे पर जाने से सामान्य बीमारी ठीक हो जाती है। वे गांव के लोक देवता थे। अन्ना हजारे के ‘यादव बाबा’  के बारे में जानकर मुझे अपने जादौराय बाबा याद आ गए। गांव का कोई भी व्यक्ति जादोराम की जाति नहीं पूछता। हरेक घरों में ‘बाबा साहेब’ अंधेरी कोठरी के एक कोने में गड्ढे में रहते हैं। ये पशुओंं की रक्षा करने वाले देवता हैं। इनकी पुजाई जिस दिन होती है। उस दिन छोटे बच्चों तक का कलेवा बंद रहता है। कहते हैं जब ये नाराज होते हैं तो पशुओ में बीमारी फैलती है। अब तो पशु भी खत्म होते जा रही हैं फिर भी गांव में बाबा साहब की पूजा बदस्तूर जारी है।
 बघेलखण्ड के गांवों का नववर्ष होलिकोत्सव के बाद चैत्र महीने में होता है। होलिका दहन में एक लम्बी लकड़ी बीच में गाड़ते थे, जिसे सम्वत कहते थे। सम्वत किस दिशा में गिरा, यह शुभाशुभ में शामिल होता था।  नए वर्ष के प्रथम माह में ही किसी दिन दोपहर में गांव के कोने पर स्थित नीम या किसी पेड़ के नीचे देवी के पास सारे गांव के प्रत्येक घर से एक व्यक्ति एक लोटा जल लिए पूरे समूह के साथ गांव का चक्कर लगाता था। जिसमें सबसे आगे एक दलित, जिसके हाथ में सद्य: जात सुअर का बच्चा (घेंटा) रहता था, दौड़ता हुआ चलता था। देवी के पास लौटकर उस बच्चे की बलि देकर गांव के सुखी होने की कामना करता था, इसे ‘निकाई देवी’ की परिक्रमा कहते थे। प्रत्येक घर की दीवारों में गोबर की गोंठ होती थी। गांव में सुख शांति रहे इसके लिए ‘हरियरी की पुजाई’ से लेकर ‘शीतला माता’ तक की पूजा की परंपरा थी। चेचक का निकलना ‘महरानी’ का निकलना मानते थे। ‘तेलिया मसान’ भी पूजित थे। जातीय सौमनस्य के ये उदाहरण आज कहां बिला गए। जो परंपराएं समाज के सभी जातियों को जोड़ती थींं उनका एकदम से   लुप्त हो जाना चिन्तनीय है। गांवों में एक लोकमंत्र हुआ करता था जिसमें ओझा या पण्डा सभी लेकदेवताओं की दुहाई देकर उनसे कल्याण करने की कामना करता था। ओझाई करने वाले ओझा कहलाते थे, अब ब्राह्मणों की एक उपजाति भी ओझा कहलाती है। लोक का दुख सिर्फ उनके द्वारा स्थापित देवता सुनते थे। वे अन्यों के आगे अपना दुखड़ा नहीं रोते।
  हमने परम्पराओं को पिछड़ापन माना। पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोगों ने गांव केवल छोड़ा भर ही नहीं, उससे संबंध भी तोड़ लिया। अपनी विद्वता और सफलता के आगे गांव की खोज खबर नहीं ली। हमारे दिल दिमाग से वह गायब हो गया। हम भूल गए उस आंगन को, उस जमीन को, जिसमें हमारी नाभि-नाल गड़ी थी। जब गांव जाता हूं, अपने बचपन के उन साथियों से मिलता हूं जिनके साथ जिन्दगी के सबसे ईमानदार-निश्छल दिन बिताये थे। जो मेरे अच्छे और धतकरमों के गवाह हैं, और वे उसी तरह भेंटते हैं, तब लगता है कि ये ओढ़ी हुई विद्वता, अभिजात्य एवं बेमानी है। आधुनिकता के दंभ ने लोक परंपराओं की हत्या कर दी और इसके लिए सिर्फ हम गुनाहगार हैं। अपने उखड़े और उजड़े हुए घर परिवार, खेत-तालाब, पेड़ देखकर गीत की वह पंक्ति अक्सर कुरेदती है -सोचता हूं अपने घर को देखकर,हो न हो, ये है मेरा देखा हुआ ।  


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