Thursday, November 24, 2011

पशु-पक्षी व प्रकृति से टूटती रिश्तेदारी


सभ्यता के इस उत्तर आधुनिक युग में हमने दुनिया मुठ्ठी में कर लिया है। हमारा बौद्धिक, भौतिक विकास हुआ परंतु जिस हृदय की विशालता और विराट रूप के लिए हम चर्चित रहे, उसका संकुचन हुआ। पहले हमारे परिधि में घर-परिवार समाज और देश था। परिवेश के पशु-पक्षी, पेड़-वृक्ष, प्रकृति, जीव जन्तु, नदी-तालाब सब हमसे समाहित थे। जिस पर्यावरण की चिन्ता आज विश्व को है, उसके लिए हमने ऋचाएं कहीं। न सिर्फ समाज की चिन्ता हमने की बल्कि सारा लोक हमारे चिन्तन के केन्द्र में था। प्रकृति के प्रत्येक रूप को हमने सहचर मानकर समरसता सीखी। प्रकृति पर विजय पाने का दम्भ हमने नहीं किया। नदी पार करते समय अंजलि में जल लेकर प्रणाम भाव से उसके पार जाने की विनती की। पेड़ पर चढ़ते हुए मन ही मन उससे स्वीकृति मांगी।
    विकास की अंधी दौड़ में हमसे बहुत कुछ छूट गया। परम्परा और संवेदनशीलता हाशिये पर चली गई, जो कभी केन्द्र में थी। मनुष्य की सार्थकता संवेदना है, इसी से वह अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। लेकिन अब असली संवेदना पर भी प्रश्न चिन्ह है। हमारे बड़का दादा (बड़े पिता जी) ने मसि और कागद नहीं छुआ था, कलम भी नहीं पकड़ी थी। कागद में क्या लिखा है, नहीं जानते थे, परंतु आखिन की देखी कहने में कभी नहीं हिचके। आज वह आंखिन देखी सच कहने का साहस, पढ़ने-लिखने के बावजूद हममें नहीं हैं। उनका संसार (लोक) विस्तृत था। पशु-पक्षी उनके समाज में थे, उनको पालने का दायित्व बोध उनमें था। पशुओं से तो स्वार्थ था, परंतु पक्षियों से भी उनका सामिप्य था। घर के कोने की ओरमानी की ठाठ में धान के बालियों को बांध देते ताकि चिरई खेत-खलिहानों के बाद भूखे न रहें। अमीरी नहीं थी, माघ और भादौं हर वर्ष होते थे, लेकिन चावल की किनकी चिड़ियों के लिए आंगन में छींटते थे और गर्मी के दिनों में घर के बाहरी कोने में एक भरी गगरी पीने के लिए जमीन पर या ठाठ में टंगा देते थे। तमाम नकली सम्पन्नता के बाद भी अब वैसा नहीं हो पाता। जिनके इर्द-गिर्द चिड़ियों की चीं-चीं गंूजती थी, उनके नाती-पोते किसी चिड़िया की जाति नहीं पहचानते। हम ग्लोबल हुए, परंतु अपनी वैश्विक दुनिया भूल गए, परिवेश से विरत हो गए।
     हमारे पास संसाधनों का अभाव था, परंतु मनुष्य होने का भाव था। अभावों में भी हम खुश थे। हर संभव सम्पन्नता के बावजूद हम सुखी नहीं हैं। पशु-पक्षी के भी हमने नाम रखे थे। गौरेया, सुआ, पोड़की, पेंगा, गलरी, कौआ, मैना, कबूतर, बुलबुल, फुदकुल्ली, कठखोलनी, धनेह, महोख, घुंघुंआर, खूसड़, नीलकंठ हमारे साथी थे, अब उन्होंने भी हमारे आंगन-खेत, खलिहान, पेड़, वृक्ष छोड़ दिये। आंगन से मठा घोंटने की संगीतमयी छोढ़िया (मथानी) गायब है। पशुओं को पास बुलाना छोड़ दिया, वे भी हमसे किनाराकशी करने लगे। प्यार की भाषा वे भी समझते हैं, हमारी ही भाषा ने मिठास खो दी है। सुबह और शाम की लाली देखने से हम महरूम हैं। चिड़ियां हमें जगाती थीं, हमारे इष्ट और अनिष्ट उनके तेवरों से जुड़े थे। कौआ, अतिथि के आने की सूचना देता था। वह चालाक पक्षी माना जाता था, परंतु कहते हैं कि कोयल अपना अण्डा कौवे के घोसलें में छोड़कर मातृत्व की सेवा से विरत हो जाती है। कौवा उसके अंडों को सेता है। पंख आने पर वे उड़ जाते हैं। चालाक और होशियार तो मीठा बोलने वाली कोयल है। हम उसके अधिक करीब हैं। पक्षियों में संवेदना भी हमसे कम नहीं हैं। कहीं-कहीं तो हमसे अधिक हैं। एक कौवा मरता है, एक दूसरे की आवाज पर पूरी बिरादरी के कौवे इकट्ठे हो जाते हैं। हमारे घर के पिछवाड़े अमरूद के एक पेड़ पर एक घोंसला था, घोंसले में अंडे थे। एक दिन पड़ोसी का लड़का अण्डे देखने के लिए पेड़ पर चढ़ा। पास की डाल पर ही दोनों नर-मादा बैठे थे। जैसे ही लड़का घोंसलों की तरफ बढ़ा। दोनों चिड़ियों ने चिल्लाते हुए उस पर हमला कर दिया। एक-एक कान पर दोनों ने चोंच मारना शुरु किया। लड़का चीखते हुए डाल से कूद पड़ा। यह साहस उन बेजुबानों का होता है जिनके बारे में कहते हैं कि उनके विवेक नहीं होता। हमारे शास्त्रों में काग और शुक तो ज्ञान के अकूत भण्डार थे। मंडन मिश्र के शुक-सारिका उनके प्रतिनिधि शास्त्रज्ञ थे। लौकिक संस्कृत के आदि कवि, क्रौंच का आंर्तनाद नहीं सह सके और मनुष्य बहेलिया को शाप दे बैठे, आदि काल से मनुष्य के सहचर रहे पशु पक्षी आज मनुष्य की संगति से विरत हैं। इसमें मनुष्य की अर्थ संस्कृति और सिर्फ अपने में केन्द्रित लाभ और उपयोग की स्वार्थमय संस्कृति है।
 साहित्य को भी बाजार ने ग्रस लिया है। अब उसमें समस्त जीव जन्तुओं की बात नहीं होती। महादेवी की सोना हिरणी,  और गिल्लू (गिलहरी) जैसे जीवन्त और अमर पात्र संस्मरणीय नहीं होते। महादेवी की ऊब से छटपटाकर प्राण देने वाली सोना हिरणी की संवेदना अभी भी अशेष है।  पशु-पक्षियों तक की खोज खबर और उनकी भाषा समझने वाले हम, अपनों की ही भाषा नहीं समझ पा रहे हैं। पशु पक्षियों का हमारे बीच से गायब होते जाना, मनुष्यत्व की परिभाषा पर प्रश्न चिन्ह है। उनसे हमारी 21 वीं सदी का अपरिचित अशुभ संकेत है। पुनर्नवा होना हमारे भारतीयता की परम्परा की पहचान है, पिछड़ेपन की निशानी नहीं। जीव जन्तुओं के आपसी वार्तालाप को समझने की अनेक कहानियों से हमारे शास्त्र   और लोक भरे पड़े हैं। गांव का किसान अपने पशुओं का दुख दर्द जानता है, वे भी स्रेह और दुलार की भाषा आंखों और मुखाकृति से पढ़ समझ लेते हैं। दोनों के बीच साहचर्य भाव है। विजेता और विजित का भाव नहीं वह सब कहां गया?
भौगोलिक स्तर पर मनुष्य सीमाबद्ध है। वह भारतीय, पाकिस्तानी, ईरानी, रूसी, नार्वेनियन, स्वीडिश, फ्रांसीसी और ब्रिटिश है, इन सबकी राष्टÑीय सीमाएं हैं और प्रतिबद्धताएं हैं। उन्हीं के आसपास रहने वाले पशु-पक्षी, हवा-पानी, अन्तरजातीय और अन्तरराष्टÑीय है। हजारों किलोमीटर की अथक यात्रा करके उन्मुक्त विहार करते यूरोपीय पक्षी भारत के अनेक पक्षी विहारों, अभ्यारणों मे बिना बीजा पार पत्र के प्रतिवर्ष प्रवास पर आते हैं। अपने छोड़ गए संतति का हाल चाल जानने, चिल्का झील का पानी पीने और राजस्थान के रेतीले किन्तु सजल धारा में स्नान करने का लोभ वे छोड़ नहीं पाते। किन्तु स्वदेश इतना प्यारा होता है कि वापस भी चले जाते हंै। हम चेतन पक्षी, प्रवासी भी यदि इन पक्षियों से कुछ सीख पाते तो कुछ मनुष्य हो लेते? हमारे लोक जगत में कितने ही सलीम अली हैं जिनको देखकर पक्षियों का समूह उन पर चोंच मानने नहीं उन पर दुलार लुटाने की होड़ लगाते हंै। उनको हमारी संगति चाहिए, वे हमारे सहचर हैं। राष्टÑकवि दिनकर ने कहा था- पक्षी और बादल। ये भगवान के डाकिये हैं। जो एक महादेश से। दूसरे महादेश को जाते हैं। हम तो समझ नहीं पाते हैं। मगर उनकी लाई चिट्ठियां/पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बांचते हैं।      
                                               

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