Thursday, November 3, 2011

मोर पिया परदेशी चले हो आबा ना


प्र कृ ति की सबसे अनमोल देन वर्षा है। मनुष्य भर नहीं पृथ्वी पर अवस्थित चर-अचर, स्थावर-जंगम सभी का जीवन वर्षा आधारित है। बादल रूठ गए, सारी प्रकृति उदास हो गई। पानी आ गया, जीवन हरिया गया। पानी चला गया फिर मनुष्य के पास बचा ही क्या!  वर्षा का स्वागत मनुष्य मात्र नदी पेड़-वृक्ष, नदी-नाले भी करते हंै, पशु पक्षियों का उत्साह और उल्लास देखते ही बनता है। शायद इसीलिए सबसे अधिक कविताएं और गीत वर्षा पर ही लिखे गए हैं, पंत और निराला ने एक दो नहीं अनेक पावस-गीत, बादल राग में गाए हैं। तुलसी के राम ने भी वर्षा का एकान्त अन्तरतम से महसूस किया। सूर के कृष्ण तो वर्षा के साथ ही धरती पर आए और आते ही यमुना मे पैर (पाद) प्रक्षालन किया। उमड़ती-उफनाती यमुना को पार करते वासुदेव के सिर पर रखी टोकरी से पैर बाहर निकाल कर यमुना में आगे खेलने कूदने का संकेत दे दिया।  भयानक और भयावह वर्षा से केवल वासुदेव को नहीं समूचे ब्रज को डूबने से बचाया। किसी प्रचलित परम्परा के विरूद्ध कृष्ण का पहला प्रतिरोध था ‘गोवर्धन पूजा’। जो कालान्तर में ‘हरियरी की पुजाई’ के रूप में ब्रज से बघेलखण्ड में आई।
    रीतिकाल के कवियों में वर्षा के इस रूप को उद्दीपन रूप में अधिक चित्रित किया है। निश्चित रूप से लोक जीवन में भी प्रोषित पतिकाओं के लिए ऋतु उद्वेलित और उत्तेजित करती है। धूम-धुआरे-कारे बादल आकाश में उठ रहे हंैं, ‘जारत आवत जगत को पावस प्रथम प्रमोद’ ऐसे में नन्हीं-नन्हीं बूंदों को गिरना, बिजली का लपकना, बादलों का गम्भीर दमदमाता गर्जन विरहिणी को अशांत करता है। एक डरावनी सिहरन से भी आप्यायित करता है। सावन-भादौं की झुकी यह अंधियारी रात उसे परदेशी पति की याद दिलाती है। बघेली लोक गीत में कजली और हिन्दुली के असंख्य ऐसे गीत हैं जो जायसी के बारहमासी को चुनौती देते हैं-  ‘लगे हैं अषाढ़,सावन चढ़ि आएं ललकारि, भादौं निशि अंधियार, कुवांर खबरी न पायेंउं, अरे सांवरिया।’ नायिका कह उठती है- ‘मोर, पपीहा बोल रहे हैं, बादल झिमिर-झिमिर बरस रहे हैं।’
सामन-भदउना कई झुकी हई अंधिअरिया, चले हो आबा ना। मोर पिया हो परदेशी चले आबा ना, अपने कोठरिया से तोहार रानी गोहराबइ चले हो आबा न।
बघेली जन-जीवन में सावन-भादौं का महीना लड़कियों के नैहर में होने का महीना है। तीजा का त्यौहार  वे प्राय: मायके में ही बिताती थीं। कजली खेलने-गाने से लेकर पुतरी बहाने की परम्परा नैहर की है। बहू के रूप में ये सब खेल ससुराल में संभव नहीं, क्योंकि ससुराल की एक मर्यादा है, वहां बहू खिलंदड़ी नहीं हो सकती। नैहर में सखियों के साथ खेल करती है। सावन-भादौं आ गया। मायके में जिसकी मां नहीं है, उसको बुलाने के लिए कौन कहे, बाप का कलेजा थोड़ा मजबूत होता है- कैसे, कौन बुलवाए, ससुराल में बिटिया व्यग्र है, दुखी है कहती है- ‘समन-भदउना कइ झुकी अंधिअरिया ये मोर मन लाग नइहरबउ हो ना
माया जो होती न सुधि मोरि लेतीं पै बाबू क कहिन करेजबउ हो ना’
इसी प्रकार भाभी जो होतीं, चाची जो होती, आजी जो होती, सभी रिश्तों से अपेक्षा करती वह नैहर के लिए उत्कंठित है। दूसरी तरफ मां की भी स्थिति बिटिया से कमतर नहीं है। विवशताएं हैं, उनका समाधान नहीं है। सूर की यशोदा तो नन्द से यहां तक कह देती है कि ‘लो ! अपना ब्रज संभालो मैं अपने लाल के पास जाना चाहती हूं!’ बघेली जीवन में मां, बेटी के ससुराल नहीं जा सकती, वह तड़पती है, बिटिया को मां को दुलार भरी बोली कभी नहीं भूलती। पूरब दिशा से उठी है बदरिया, बरसे लागी ना, बदरा नान्ही-नान्हीं बुुदिया बरसै लागें ना, अपने महलिया से माया निहोरै रोवत होंइहीं ना, मोरी बेटी परदेशिन, रोबत होइहीं ना, होतू जो मोर बेटी हाथे पर मुंदरिया, रही हो अउतिउ ना, बेटी हमरे अंगुरिया, रही हो अउतिउ ना, काहे क पठइउ माया देश पर देशबा, नहीं हो बिसरउ ना, माया तोहरिन बोलिया, नहीं हो बिसरइ ना।
गीतों में जीवन के प्रत्येक रंग होते हैं। हर सम्बन्धों के गीतों की अलग ध्वनि है। समाज के प्रत्येक रिश्तों की अलग-अलग अपेक्षाएं होती हैं। सास-बहू के रिश्ते तुलसी के मानस की तरह बहुत कम दिखते हैं दीप बलि नहीं टारन कहेऊ, वाली कौशिल्याएं लोक में बहुत कम हैं। बहू को कठिन से कठिन काम देना बघेली जनजीवन में भी है। गंगा-जमुना नदी का कगार गिर गया है, कोई घाट नहीं है, फिर भी सास का आदेश है कि घड़ा भर के पानी लाने का! घड़ा भी चू रहा है, कैसे पानी आएगा, इससे सास का मतलब नहीं, उसे पानी चाहिए। बहू का संकट और दुख तथा ग्लानि इस गीत में किस प्रकार व्यक्त होती है-
देखें गंगा जमुना जी क  ओदरा कगरबा पई सास पठवंइ गंगा पनिअउ हो ना, सासु मोर दिहिन फुटहा घइलना, भीजइ हो लागें ना, मोर सतरंग चुनरिया भिजइ हो लागे ना,अस रिसि लागइ, पटकि देई घइला, कूदि हो परी ना, येंहीं अगमी दहरिया, कूदि हो परी ना।
कण्व जैसा वीतरागी ऋषि भी शकुन्तला की विदा में फफक पड़ा, शकुन्तला पालित पोषित पक्षियों-पशुओं की तो बात ही क्या, पेड़ पौधे भी हहरा उठे! ससुराल जाती बिटिया गांव से बाहर निकलते, बाबू के बगीचे, तालाब, पेड़ों से भी लिपटकर रोना चाहती है। लोक में कहते भी हैं कि ‘मायके का कुकुर भी भाई जैसा लगता है। कबीर भी   इस वजह से नइहर के छूट जाने से आत्मा को विचलित होते देखते हैं’, ‘बाबुल मोर नइहर छूटत जाय’ बघेली लोक गीत मे भी बेटी को अनुरोध देखें,उसका मायके का प्यार देखें -
एक वन गई, दूसर वन गई तिसरे वने ना, परा बाबू का बगीचा, तिसरे वने ना, थोरई क डोलिया तूं धई दे कंहरिया, देखि हो लेई ना, अपने बाबू क बगिचबा, देखी हो लेई ना, एक वन गई, दूसर वन गई, तिसरे वने ना, परा बाबू क  सगरवा तिसरे वने ना, थोर क डोलिया तूं धई दे कंहरिया, देखि हो लेई ना, अपने बाबू क सगरवा देखी हो लेई ना।
बघेली लोक-जीवन में प्रकृति के सभी जीवों से आत्मीय संबंध आदिम काल से रहे हैं। बहुला चौथ, भादौं कृष्ण पक्ष चतुर्था का प्रमुख व्रत है। गांव भर की प्रिय गाय बहुला (सुरमी) वन में चरने गई। उसे बाघ ने घेर लिया। बहुला ने कहा - ‘मेरा बछड़ा है भैया ! मुझे जाने दो, वह भूखा होगा, उसे दूध पिलाकर आऊंगी तब मुझे खा लेना’ भइया कहने के कारण बाघ ने उसे छोड़ दिया। इस शर्त के साथ कि तुम्हें आना होगा। गाय उदास आती है,  बछड़ा जान जाता है, वह हारा हुआ दूध नहीं पीता। मां के साथ वन जाता है। सारा गांव गाय को रोकता है। गाय नहीं मानती। बछड़ा आगे-आगे चलता है, बाघ को देखते ही ‘मामा प्रणाम’ कहता है और अपने को मां के पहले खाने के लिए बाघ से विनती करता है बाघ इस अनोखे रिश्ते के बंधन में बंधकर दोनों को छोड़ देता है। गांव, गाय और बछड़े को आता देखकर बहुत खुश होता है, दिन और देर रात तक प्रतीक्षा करता गांव उस रात चना और जौ की रोटी खाकर व्रत करता है। बहुरा चौथ भाई (बाघ) और पुत्र (बछड़ा) के चिरंजीवी होने का त्यौहार है। वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए यह व्रत एक अनूठा उदाहरण बघेली लोकगीतोें मे मिलता है-
एक बभनमां के सुरहिन गइया पई चेरे उ नदन वन जाइउ हो ना, एक वन गई हइ, दूसरे वन गर्इं हइ, तिसरे वने ना, उहै बिंझ के पहारी, तिसरे वने ना, जब उगइयां मंथवा ओनामा, पइ सिंघ गराजै लागे हो ना,‘आजु के दिना तूं छोड़ा मोर सिंघ, पर घरे बांधे बछड़ू हमारौ हो ना’ ‘गइया जाति चतुर मोंहि लागै, हगि हो डोरे ना’,‘मोर मिला रे अहर बा, ठगि हो डोरे ना’,‘बछड़ू केर किरिया करब मोर भइया, ये लोंटि हम अदबै पहरिउ हो ना’,‘आनो दिना माया हुंकुरति आमा, आजु काहे अनमन ठाढ़िह हो ना’,‘आबा बछोलन तू थने म लगि जा पै सिंध से होरउं बातिउ हो ना’, ‘हारा दुधवा न पिअब मोरि माया, ये हमहूं चलब तोहरे सथबौ हो ना’, ‘एक वन गई दूसर वन गई तिसरे वने ना, पहुंचे सिंध के पहरी तिसरे वने ना’,‘पहले हो मामा तूं हमका भखि ले थे फेरि पीछे माया हमारिउ हो ना’,‘छिटिकि चरा बछड़ू कदली के वन मा, पै इ वन आई तोहारउ हो ना’
वर्षा ऋतु में गाये जाने वाले ये लोकगीत बघेली संस्कृति के सामाजिक जीवन के परिचायक मात्र नहीं है वरन अपनी निरंतरता में भी शास्वत है। सावन-भादौ में झूलों पर गाती लड़कियों, स्त्रियों एवं पुरूषों के गीत, हृदय में करूणा, प्रेम एवं स्रेह को जीवन्त रखते हैं। खेतों में निरौहों करती, ललनाएं, ओनए बादलों को देखकर जब कजली और हिन्दुली की तान देती हंै, बादल झर आते हंैं। गांव से लगे अपने जंगल में पेड़ों पर चढ़ कर नीचे बादलों को चरते हमने देखें हैं। पंत जी ने ‘उड़ गया अचानक लो भूधर’ देखा था। हमारे लोकमानस में उन्हीं कल्पनाओं को गीतों में ढालकर अमर कर दिया। विकास के इस अन्धे दौर में यह जरूर हुआ है कि गांवों  में भी झूले कम हो गए हैं, गीत गाने वाली परम्परा खत्म होती जा रही है, फिर भी ये लोकगीत हमारे जीवन की श्वास-प्रश्वास में है, रहेंगें, समय इन्हें क्षुब्ध करता है, लुप्त नहीं कर सकता, क्योंकि ये कालातीत है।

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