Thursday, November 3, 2011

सावन इसलिए मनभावन

सम्राट अकबर ने बीरबल से पूछा- बीरबल बारह में से चार निकल जाएं तो शेष कितने बचेंगे। बीरबल प्रत्युत्पन्नमति थे, उन्होंने उत्तर दिया- जहांपनाह! शून्य! सभी दरबारी हंस पडेÞ बीरबल की इस मूर्खता पर। बादशाह ने पूछा- कैसे! बीरबल ने कहा- जहांपनाह! वर्ष में बारह महीने होते हैं। बारह में से चार महीने बरसात के होते हैं, यदि ये चार महीने बिना बरसे चले जाएं, फिर तो शून्य ही शेष रहेगा। अकबर का आशय भी यही था क्योंकि शेष दरबारियों का उत्तर ‘आठ’ था। बीरबल के उत्तर से सम्राट खुश हुए। यों भी बीरबल, अकबर के प्रत्येक प्रश्नों के समाधानकर्ता थे। सैकड़ों वर्षों पहले पूछा गया यह प्रश्न और उत्तर आज भी उतनी ही अर्थवत्ता से उपस्थित है।
   यह चतुर्मास (चौमास) भारतीय जीवन-दर्शन का आधार है। अनेक वर्षांे बाद आषाढ़ के प्रथम दिवस पर आर्द्रा  के मेघों ने धरती को तृप्त कर दिया। ग्रीष्म की तपन में पेड़ सूख गए, कुओं ने जवाब दे दिया। धरती की छाती पर कोदौ दरता हैंडपम्प सांस लेने लगा। जाने किसकी आह में इतना दम था कि पूरुब दिशा से बादल उठे और इस तरह बरसे कि लोगों के चेहरे खिल उठे, अनायास ही कृतज्ञता में वाह कह उठे। वर्षा मनुष्य का मुक्तिपर्व है। अंग अंग पुलकित हो जाता है। पेड़- पौधे लहलहा उठते हैं, धरती हरी-धानी चूनर पहन इठलाने लगती है। गर्मी और धूल से धूसर पत्ते सद्यस्राता की तरह लहक कर एक दूसरे को चूमने लगते हैं। नदी का संगीत शुरू हो जाता है, ग्रीष्म में वह दुबली होकर सलिला का अर्थ खो बैठी थी, एकाएक दर्शन बघारने लगी। पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सब निकल पडेÞ, वर्षा रानी का स्वागत करने। पक्षी गाने लगे। ग्रीष्म ने सबका गाना छीन लिया था। मेढ़कों ने राग सारंग(बादल) छेड़ा। वर्ष भर पता नहीं कहां छिपा रहा तुलसी बाबा का दादुर। वर्षा ने उसे उद्दीप्त कर दिया, वह ब्राह्मणों की तरह वेद पढ़ने लगा। वेद का आरोह और अवरोह से लगातार दस-बारह घण्टे पढ़ना किसी भी ब्राह्मण के वश का हो न हो, मेढ़कों के वश का है। वे निरन्तरता के साथ लय और स्वर से रात मेघों आह्वान करते रहते हैं। मनुष्यों की तरह वे बेसुरे नहीं हैं। उन्हें किसी उस्ताद की जरूरत नहीं है। चर-अचर हरिया गए।
  वर्षा के इन चार महीनों (आषाढ़, सावन, भादौं, क्वांर) पर ही वर्ष भर की खुशी निर्भर हैं। सारी प्रकृति का आनन्द वर्षा पर निर्भर है। वह गाने लगता है- लगे है असाढ़, सावन चढ़ि आएें ललकार भादौं निशि अधियार। बघेली लोक-जीवन में वर्षा सर्वोत्तम ऋतु है। सबसे अधिक त्यौहार व्रत, उत्सव इसी ऋतु में होते हैं। सावन आनन्द और उत्सव का महीना है। ‘सावन’ गीतों की एक परम्परा का नाम है। कजली, हिदुली लोकगीत, भिनसार से झूले में शाम तक, गांवों में आज भी सुने जा  सकते हंै। बघेली जन जीवन में सावन-भादौं का महीना बहन-बेटियों के मायके में होने का महीना है। राखी से तीजा तक उनके गाने, हंसने खेलने के दिन हैं। ससुराल में रह रही ग्रामीण वधू अपने मायके में पहुंचने के लिए कलप रही है, उसके मां नहीं हैं, पिता को बुलाने की फुरसत नहीं है, वह रोते हुए गा उठती है। जीवन के सुख-दु:ख को उत्सव की तरह गीत गाने की परम्परा भारतीय लोक जीवन में है। यहां स्त्रियां रोते हुए गाती रहती हैं। राजाओं के यहां तो मृत्यु पर रोने के लिए रुदाली होती है। रानी रो नहीं सकती, रोने के लिए तो सामान्य जन होना पडेÞगा। सामान्य ही तो लोक का यथार्थ सत्य है- पूरुब दिशउना से उठी रे बदरिया, बरसै हो लागी ना,उहै नान्ही नान्ही बुंदिया, बरसै हो लागी ना, माया जो होतीं, त सुधिया लइ लेतीं पइ बाबुल क कठिन करेजबउ हो ना। बाप का कलेजा कठिन होता ही है, माता की तुलना में। दूसरी तरफ ऐसे भी चित्र लोक जीवन में है कि मां, आजी बेटी के लिए रो रही हैं। गांव की लड़कियां गुड़िया, कजली खेल रही हैं, हमारी बेटी ससुराल में है उसे देखने की ललक आंसुओं में व्यक्त होने लगती है। बेटी मोर से कहती है-  ऐरिया के बेरिया मैं तोंहि बरजै मोरबा, के मत बोलै ना, मोरे बाबू के सगरबा पै मत बोलै ना। और उधर आजी (दादी) की स्थिति देखिए। तीसरी पीढ़ी का अतिरिक्त स्नेह कितना मार्मिक है- सगरा किनारे ठाढ़ि बेटी कइ आजी, रोबइ हो लागी ना। मुंह दइकै अंचरबा रोबइ हो लागी ना सबकै बेटी खेलैं गुड़िया-कजलिया हमार बेटी ना। कुहकै अपने ससुरबा हमार बेटी ना,  लोक-जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व है। आज रिश्ते दरक रहे है।  पहले पशु-पक्षी-पेड़ वृक्षों से भी लिपटकर रोते थे। रिश्ते बन रहे हैं लोक में राम, लक्ष्मण, सीता भी सामान्य मनुष्य की तरह हैं, हां लोक की संवेदना जरूर उनके साथ है। उन पर मेघ नभ छाया अतिरिक्त रूप से नहीं है। वन में जाते हुए वे उन्हें मोहते हैं। आगे-आगे राम चलत हैं पीछे लक्ष्मिन भाई, ओनके बीच म सीता जानकी शोभ बरनि न जाई, तो है लेकिन भरी बरसात में उनके भीगने की चिन्ता है। कौन बिरिछ तर भीजत होइही राम लखन दुनउ भाई। सावन सुख का महीना है तो विरह का महीना भी।
   आषाढ़Þ के ओनए बादलों को देखकर कालिदास का शापित यक्ष मेघ को ही अपना दूत बनाकर अलकापुरी भेजता है, तो बाबा नागार्जुन कालिदास से ही पूछ बैठते हैं- कालिदास सच-सच बतलाना। इंदुमती के विरह शोक में, रोया यक्ष कि तुम रोये थे। तुलसी के राम भी ऋष्यमूक   पर्वत पर बादलों के गर्जन-तर्जन से अकेली सीता की स्मृति में सिहर उठे थे। बरसहिं बडेÞ बूंद, सीता कदम तरि भीजंइ की कल्पना, लोक को है। लोक गीतों में सीता और राधा के बहाने आम लड़की-बहू की तरह खेलने की बाते हैं।
   लोक सहजता का विश्वासी है, उसमें ग्लैमर और अभिजात्य का दिखावा नहीं है- सात सखियां मिलि सीता अकेली। खेलत होंइहीं ना। लट छोरे रे खेलत होंइहीं ना। मोरि पतली पतोहिया खेलत होंइहीं ना। अपने महलिया से ससुरा निहांरइ, भिजत होंइही ना। ससुर चिंतित हैं परन्तु खेल में बाधा नहीं डालता। लोकगीतों में सावन के झूलों का वर्णन अनेक तरह से है। कही ब्रज में कृष्ण और राधा को झूलते हुए देखने का आग्रह है, कहीं शिव के छद्म रूप को पहचान लेने की समझ है। सखियां चला चली दर्शन का ब्रज मा झूलि रहे गोपाल। को या झूलैं को या को या झुलावैं, को या खीचैं डोर। की जिज्ञासा है, वहीं महादेव शिव के रूप बदलने पर पकड़ जाने पर-कतनउ महादेउ तुं बदन छिपउबे चीन्हि हो जाबइ न। तोहर संभरी सुरतिया चीन्हि हो जाबइ ना। बेला और चमेली किस समय फूलती है, यह खिलने की सतत प्रक्रिया है परन्तु लोक ने इनके फूलने का समय अपने, प्रिय प्रणय-काल से जोड़कर गंध को सार्थक कर दिया- हरे रामा, बेला फूली आधीरात, चमेली भिनसारे रे हारी।  बिहारी ने अली-कली में ही बंध्यो लिख कर अविकसित यौवन के प्रति राजा को सचेत किया था। लोक कवि ने कच्ची कली कचनार, टोरत डर लागै रे हारी, कहकर सतर्कता बरतने का संकेत भी दे दिया। बघेली कजली और हिंदुली में लोक-जीवन का संघर्ष और सम्बन्धों का अप्रतिम निर्वाह है।
   सास-बहू और ननद भौजाई में प्रेम तो है, लेकिन लोक में इन सम्बन्धों पर अनेक प्रश्न चिन्ह है। सास और ननद को बहू और भौजी के आने पर, भाई और पुत्र के स्नेह के विभक्त होने के डरने, ईर्ष्या और  जलन भाव पैदा कर दिया। मायके से आए भाई के लिए क्या कुछ नहीं चाहती बहन। आंगन बटोरते बहू के हाथ से बढ़नी कहती है कि मायके से भैया बढ़नी का बोझा लेकर आएंगे। बहू चील्ह (चील) पक्षी से सन्देश भेजती है। संभवत: समूचे लोक और साहित्य बांग्मय में चील से सन्देश भेजने की बघेली बोली की विशिष्ट परिकल्पना है। चील से अधिक दूर दृष्टि वाला कोई पक्षी नहीं होता। भाई बोझा भर बढ़नी लाता है। सास फरिका में रखवा देती है, बहन बमुश्किल से आंगन में भाई का पैर पकड़कर भेंटती है (भेंटना बघेली से मिलना नहीं है- मिलते हुए रोना है) भाई को क्या खाना बनाए, पूछने पर सासु पुरानी रखी कोदई का भात और मूंग की दाल बनाने को कहती है। बहू एकदम प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। सहने की सीमा पार हो जाने पर बहू का यह विद्रोह समीचीन और सार्थक है। बहू कहती है कि कोठे में रखे बढ़िया चावल और अरहर की दाल बनाऊंगी। लोकगीत में कथा है-
 ‘अंगना बहारत टूट गई बढ़निया, पइ सासु गरियाबइ बीरन भइअउ हो ना। जनि गरिआबा सासु हमरा बिरनमा, पइ लइ अइहीं बढ़नी क बोझवउ हो ना। सरग उड़न्ती तइ चिल्हिया रे बहिनी, माया से कहे रे संदेशवउ हो ना। धिया मोरि दूबरि, केशनि भइ लूमरि, पइ हियरउ म भरे हइ विरोगबउ हो ना। बहुत दिना म आंए हइ बीरन भइया, का रची जेउनरिवउ हो ना। बहुत दिना कइ धरी हइ कोदइया, अउ मुंगिया कइ दारिउ हो ना। माचिकब कोदइया, छितराइ जइहैं रे अंगना, खीचि लाउब चउरा अ दारिउ हो ना।
                                           

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