Friday, November 18, 2011

लोकोक्तियों में सांस्कृतिक चेतना



ज्ञान और कर्म का समाहार ही सम्पूर्ण मानव-संस्कृति है। संस्कृति पर लोक का दांय है। ग्राम-संस्कृति ही लोक संस्कृति है। जिस साहित्य और कला में लोक तत्वों की जितनी ही प्रमुखता होगी वह उतना ही शाश्वत होगा, किंबहुना कालजयी भी होगा। भक्तिकालीन कविताएं इसीलिए श्रेष्ठ हुर्इं कि उनमें लोकतत्व की प्रधानता थी। लोक कविताओं में जीने की खुशी है तो उसका दर्द भी, निर्मल हंसी है तो कठोर व्यंग भी। संस्कृति जीवन चेतना की वाहिका है। संस्कृति जीवन का सुन्दर, सुकोमल, और सौरभमय पक्ष भी है, समाज के विकास का इतिहास भी। लोक जीवन के चारों ओर बिखरे उपकरण, उसके रीति रिवाज, क्रियाकलाप, धार्मिक-आध्यात्मिक आद्यान, भाषा, गीत, मौखिक आख्यान, प्रचलित लोकोक्तियां और मुहावरे उसके विकास की कहानी कहते हैं। बघेली में लोकोक्तियों के लिए ‘उखान’ राष्टÑ का प्रचलन है। यह ‘उखान’ उपाख्यान का लोक सम्मत रूप है। गम्भीरता से देखा जाए तो लोकोक्तियां अपने गर्भ में एक आख्यान पाले रहती हैं। अर्थात लोकोक्तियां लघुकथाएं हैं, ग्राह्य नीति वाक्य है, एक सूक्ति है, परंतु उनमें सूक्ति जैसी दुर्बोधता ओर नीरसता नहीं होती। वे कालेत्तर होती हैं। उनमें जीवन की सरलता होती है और यह सरलता चिन्तन को जन्म देती है।  ये समझ के साथ विकास पाती हैं। अपनढ़ भी इसका भरपूर सार्थक प्रयोग करते हैं। यही उखान (उक्खान) के कालातीतत्व का रहस्य है, उनका प्रसार सुदूर अतीत से लेकर आसन्न वर्तमान तक है।
‘अधजल गगरी छलकत जाए’ ओछे व्यक्ति का प्रतीक न केवल भारतीय लोक जीवन में है बल्कि ‘इम्प्टी पाट मेक्स मच न्वायज’ के रूप में आंग्ल-जीवन में भी प्राप्त है। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ समान स्वभाव वालों की जमात को उजागर करता है, आंग्ल-जीवन में ‘बर्ड्स आर सेम फीदर फ्लाक टूगेदर’ बन जाता है। ग्राम्य-अंचल में प्रचलित ‘जेकर जइसन बाप महतारी, तेकर तइसन लड़िका’, ‘लाइक फादर लाइक सन’ से कहां कम है। लोकोक्तियां अमर सांस्कृतिक चेतना तत्व है, गहरी अनुभूतियां हैं, सर्वजनीन, विश्वसनीय हैं। इनके सामने भूगोल की सीमाएं अस्तित्वहीन हैं। इनकी जड़ें मानव स्वभाव की अतल गहराइयों में होती है। बघेली मानस कहता है ‘इनकी धोती आकाश में सूखती है।’ हमारी सांस्कृतिक दांय इन लोकोक्तियों में सुरक्षित है। प्रत्येक काल और समाज में स्वार्थियों  की कमी नहीं रही है। ये किसिम-किसिम के होते हैं। पेट के स्वार्थी या पेटू भी ऐसे ही प्राणी हैं। बघेली में इन्हें ‘हउहा’ कहा जाता है। ‘हउहा’ का चरित्र बहुत ही घृणास्पद और मनोरंजक होता है। ये खा-खाकर मरेंगे, परंतु मर-मर कर भी खाएंगे, और खाने के लिए ललचते रहेंगे। इनके स्वभाव को ‘अपन पेट हाहू, मैं न देइहौं काहू’ लोकोक्ति बखूबी व्यक्त करती हैं। हरेक समाज और जाति कुछ दृढ़व्रती, संयमी और निर्भीक व्यक्तियों के त्याग और संयम के बल पर आज भी गौरवान्वित है, ‘जब कांडी म मूंड़ दीन त मूसर से कउन डेरि’ उक्खान ऐसे ही जुझारू चरित्र को उजागर करता है। लोक जीवन में छाया-धूप के रंगारंग आवर्त-विवर्त की तरह सुख-दु:ख का चक्र चलता रहता है। दु:ख और विवाद की गहराई में आशा की किरण ही धैर्य बंधाती है। इस आशा और जीवन के प्रति अदम्य विश्वास की झलक एवं जिजीविषा की ललक ‘बारह महीना बाद घूरेउ केर दिन फिरथ’ उखान में मिलती है।
   काहिलों और निकम्मों का अभाव कभी नहीं रहा। ऐसे लोग प्राप्त अवसरों का भी उपयोग करना नहीं जानते। ‘बारह बरस दिल्ली रहे, भाड़ ही झोंका किए’ ऐसे ही चरित्रों की ओर संकेत है। इस लोकोक्ति में दिल्ली की प्रतिष्ठा, ख्याति एवं कर्म के क्षेत्र में खुली स्थिति की भी ध्वनि है। उसकी दयनीयता का कहना ही क्या? उसकी कहानी ‘आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ लोकोक्ति की गहरी निराशा में व्यंजित होती है। कपास की खेती और उसका ओटा जाना भी ज्ञातव्य है, इतना ही नहीं यह भी ध्वनित होता है कि ‘हरि भजन’ ही जीवन का महत उद्देश्य रहा है।  कृषक संस्कृति का विज्ञापन तो अनेक लोकोक्तियां करती हैं ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ या ‘अब पछिताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ उद्धृत पहली लोकोक्ति उपयुक्त समय पर वांछित क्रिया के सम्पन्न न होने से प्राप्त निराशा, बेबसी एवं दयनीयता का खुलासा करती है। खेती वर्षा पर आश्रित है। मेघ की अदया मार सीधे किसान के पेट पर पड़ती है। वही पीड़ा इस लोकोक्ति का मुखर स्वर है। काल किसी के लिए ठहरता नहीं। समय उसी का हुआ है, जिसने उसे आगे से पकड़ा है, अन्यथा वह द्वार पर दस्तक देकर चला गया है। और ‘हाथ मीजिबो हाथ रहयो’ वाली स्थिति ही मिली है। काल के आगे व्यक्ति का बौनापन भी उद्धृत उपर्युक्त लोकोक्ति का प्रतिपाद्य है।
  लोकोक्ति का नाम रूप कहावत भी है। पढ़े लिखे लोग अपने लेखन को लोक से जोड़ने के लिए इनका प्रयोग करते हैं, लेकिन गांव के लोग तो बात बात में सहज प्रवाह में इनका उपयोग करते हैं। कहावतें/लोकोक्तियां ग्रामीण जनता का दर्शनशास्त्र है। इनमें कही हुई बातें राई-रत्ती सच्ची तथा मानवीय होती है। इसका संचरण बोली-भाषा में किंचित हेरफर के साथ पूरे संसार में एक जैसा है। ‘बनावट’ व्यक्ति के ओछेपन की पहचान है। ओछापन लोक-जीवन में व्याप्त एक महत्वपूर्ण चरित्र है। बड़प्पन भी इसके रहते सुरक्षित है। ‘अरहर की टट्टी गुजराती ताला’ कहावत में ध्वनित अर्थ पर   विचार करें- ताले कभी गुजरात के प्रसिद्ध रहे होंगे और किवाड़ की जगह अरहर की सूखी टटिया। कितनी सार्थक व्यंग्योक्ति है। विसंगति कब और कहां नहीं रही। यह विसंगति विचार, क्रिया और व्यवहार सभी क्षेत्रों में, समाज और जातियों में न्यूनाधिक मात्रा में पाई ही जाती है। न्यायिक संदर्भों में एक विसंगति ‘चोर चौतरा नाची, साहु क फांसी होय’ तो कालजयी है। इस लोकोक्ति पर तो काल का दाग आज भी नहीं लगा। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का मंजर तो शाश्वत सत्य है। काल की गति धूल को आसमान में चढ़ा देती है, नहीं तो बिल्ली के आगे  भला चूहों की क्या बिसात। जो चूहे ‘बिल्ली के गले में घन्टी कौन बांधे’ प्रश्न पर परेशान थे, वे ही समय आने पर ‘बूढ़ी भई बिलैया मुसबे टेमा कान’ शक्तिशाली या दम्भी को यह गांठ बांध लेने की सीख भी मिल रही है कि ‘पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान।’
  लोकोक्तियों में मुखर लोक सांस्कृतिक तत्व हमारी संस्कृति का इतिहास है। हमारे चेतना की कहानी है। इसके आरोहावरोह तंत्री या तमूरे की पदार्थिक सीमा का अतिक्रमण कर अखंड भूमण्डल और अकूत गगनमण्डल को यावद्वयव आच्छादित किये हुए हैं, लोक होनहार बिरबा हैं, संस्कृति लोक पर फूल ओर फल रही है, यही आश्वस्ति-भाव है।
                                              - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                      सम्पर्क - 09407041430.

No comments:

Post a Comment